________________
इन सब बाक्यों का प्राशय क्रमशः इस प्रकार है
(१) ब्राह्मण, क्षत्रिय, बंश्य ये तीनों वर्ण (आम तौर पर) मुनि दीक्षा के योग्य हैं और चौथा शूद्र वर्ण विधि के द्वारा दीक्षा के योग्य है (वास्तव में) मन वचन काय से किये जाने वाले धर्म का अनुष्ठान करने के लिए सभी अधिकारी होते हैं ।
जिनेन्द्र का यह धर्म प्रायः ऊंच और नीच दोनों ही प्रकार के मनुष्यों के आश्रित है, एक स्तम्भ के अाधार पर जैसे मकान नहीं ठहरता उसी प्रकार ऊंच नीच में से किसी एक ही प्रकार के मनुष्य समूह के आधार पर धर्म ठहरा हुमा नहीं है।
यशस्तिलक (B) मा मांगादिक के त्याग रूप प्राचार की निर्दोषता, गृह-पात्रादिक की पवित्रता और नित्य स्नानादि के द्वारा शरीर शुद्धि ये तीनों प्रवृत्तियां (विविधियाँ) शूद्रों को भी देव, द्विजाति और तपस्वियों के परिकर्मों के योग्य बना देती है।
-नीतिवाक्यामृत (३) प्रासन और बर्तन प्रादि उपकरण जिसके शुद्ध हो, मद्य-मांसादि के त्याग से जिसका प्राचारण पवित्र हो और नित्य स्नानादि के द्वारा जिसका शरीर शुद्ध रहता हो, ऐसा शूद्र भी प्राह्मणादिक वर्णो क सदश धर्म का पालन करने के योग्य हैं, क्योंकि जाति से हीन पात्मा भी कालादिक लब्धि को पाकर जैन धर्म का अधिकारी होता है।
-सागारधर्मामृत नीच से नीच कहा जाने वाला मनुष्य भी इस धर्म को धारण करके इसी लोक में प्रति उच्च बन सकता है। इसकी दण्टि में कोई जाति गहित नहीं-तिरस्कार किये जाने के योग्य नहीं सर्वत्र गुणों को पूज्यता है, वे हो कल्याणकारी हैं, और इसी से इस धर्म में एक चाण्डाल को भी व्रत से युक्त होने पर ब्राह्मण तथा सम्यग्दर्शन से युक्त होने पर देव माना गया है। यह धर्म इन ब्राह्मणादिक जाति भेदों को तथा दूसरे चाण्डालादि विशेषों को बास्तविक ही नहीं मानता किन्तु वद्धि अथवा प्राधार पर कल्पित एवं परिवर्तनशील जानता है और यह स्वीकार करता है कि अपने योग्य मुगों को उत्पत्ति पर जाति उत्पन्न होती है और उसके नाश पर नष्ट हो जाती है । इन जातियों पाकृति आदि के भेद को लिए हुए कोई शाश्वत लक्षण भी गो-अश्वादि जातियों की तरह मनुष्य शरीर में नहीं पाया जाता, प्रत्युत इसके शुद्रादि के योग से ब्राह्मणी प्रादि में गर्भाधान की प्रवत्ति देखी जाती है, जो वास्तविक जाति भेद के विरुद्ध है। इसी तरह जारज का भी कोई चिह्न शरीर में दिखाई नहीं देता. जिससे उसकी कोई जूदी जाति कल्पित की जाय, और न महज व्यभिचार जात होने की वजह से हो कोई मनष्य नीच कहा जा सकता है. नीचता का कारण इस धर्म में 'अनार्य प्राचरण' अथवा 'म्लेच्छाचार' माना गया है। वस्तुतः सब मनष्यों की एकही मनष्य जाति इस धर्म को अभीष्ट है, जो मनुष्य जाति नामक नाम कर्म के उदय से होती है. और इस दष्टि से सब मनष्य समान है मापस में भाई-भाई हैं और उन्हें इस धर्म के द्वारा अपने विकास का पूरा-पूरा अधिकार प्राप्त है। इसके सिवाय, किसी के कूल में कभी कोई दोष लगा गया तो उसको शुद्धि को, और म्लेच्छों तक को कुलशुद्धि करके उन्हें अपने में मिला लेने तथा मुनि दीक्षा आदि के द्वारा ऊपर उठाने को स्पष्ट आज्ञाएं भो इम शासन म पाई जाती हैं और इसलिए यह शासन सचमुच ही "सर्वोदय ताथ के पद को प्राप्त है--इस पद के योग्य इसमें सारी ही योग्यतायें मोजद हर कोई भव्य जीव इसकी सम्यक माश्रय लेकर संसार समुद्र से पार उतर सकता है ।
परत यह समाज का और देश का दुर्भाग्य है जो आज हमने-जिनके हाथों देवयोग से यह तोर्थ पड़ा है इस महान तीथ की महिमा तथा उपयोगिता को भुला दिया है, इसे अपना घरेलू , क्षुद्र या असदिय तीर्थ का-सा रूप देकर इसक चारो तरफ ऊंची-ऊंची दावार खड़ी कर दा है और इसके फाटक में ताला डाल दिया है। हम लोग खुद हो इससे ठीक लाभ उठाते हैं और न दुसरों का लाभ उठाने देते है-महज अपने थोड़े से विनोद अथवा क्रीडा के स्थल रूप में ही गले इसे रख छोडा है और उसी का यह परिणाम है कि जिस रूप में ही हमने इसे रख छोड़ा है और उसी का यह परिणाम है कि जिस सर्वोदय सीर्थ पर दिन रात उपासकों की भीड़ और यात्रियों का मेला सा लगा रहना चाहिए था वहाँ आज सन्नाटा सा छाया हमा है, जैनियों को संख्या भी अंगुलियों पर गिनने लायक रह गई है और जो जैनी कहे जाते हैं। उनमें भी जैनत्व का प्रायःकोई स्पष्ट लक्षण दिखलाई नहीं पड़ता-कहीं भी दया, दम, त्याग और समाधि की तत्परता नजर नहीं पातीलोगों को महावीर के सन्देश की ही खबर नहीं, और इसी से संसार में सर्वत्र दुःख ही दुःख फैला हुप्रा है।
ऐसी हालत में अब खास जरूरत है कि इस तीर्थ का उद्धार किया जाय, इसकी सब रुकावटों को दूर कर दिया
है जो बाजा है।
को भुना
५८२