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है । यह १३५ वर्ष का अन्तर यदि उक्त ६०५ वर्ष से घटा दिया जाय तो अवशिष्ट ४७० वर्ष का काल रहता है, और यही स्थूल रूप से वीर' निर्वाण के बाद विक्रम सम्वत् की प्रवृत्ति का काल है, जिसका शुद्ध अथवा पूर्ण रूप ४७० वर्ष ५ महाने हैं और जो ईस्वी सन् से प्रायः ५२८ वर्ष पहले बोर निर्वाण का होना बतलाता है। और जिस दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों हो सम्प्रदाय मानते हैं।
अब मैं इतना पीर बतला देना चाहता हूं कि त्रिलोकसार को उक्त गाथा में शकराजा के समय का · वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीने पहले का जो उल्लेख है उसमें उसका राज्यकाल भी शामिल है, क्योंकि एक तो यहाँ सगराजी पद के बाद तो शब्द का प्रयोग किया गया है जो ततः (तत्पश्चात) का वाचक है और उससं यह स्पष्ट ध्वनि निकलतो है कि शकराजा की सत्ता न रहने पर अथवा उसको मृत्यु स ३६४ वर्ष ७ महीने बाद कल्की राजा हुआ। दूसरे, इस गाथा में कल्का का जा समय वीरनिर्बाण से एक हजार वर्ष तक (६०५ वर्ष ५ मास-!-३६४ वर्ष ७ मास) बतलाया गया है उसमें नियमानुसार कल्को का राज्य काल भी आ जाता है, जो एक हजार वर्ष के भीतर सीमित रहता है और तभी हर हजार वर्ष पीछे एक कल्को के होने का वह नियम बन सकता है जो त्रिलाकसारादि ग्रन्थों के निम्न वाक्यों में पाया जाता है ......
इदि पडिसहस्सवस्स वीसे करकोणदिक्कमे चरिमो । जलमंथणो भविस्सदि कवको सम्मम्गमत्थणयो ।।८५७। त्रिलोकसार। मुक्ति गते महाबोरे प्रतिवर्ष सहस्त्रकम् । एकको जायते कल्को जिनधर्म विरोधकः ॥ हरिवंशपुराण एवं बस्ससम्हरो पुह कक्को हवेइ इक्केक्को । --त्रिलोकप्रज्ञप्ति
- इसके सिवाय, हरिबंशपुराण तथा त्रिलाप्राप्ति में महावार के पश्चात् एक हजार वर्ष के भीतर होने वाले राज्यों के समय को जा गणना की गई है उसमें साफ तौर पर क.क राके२१६ शारिल किये गये हैं ऐसा हालत में यह स्पष्ट है कि त्रिलोकसार कः उक्त गाया में शापार ककः का जा समय दिया है वह अलग-अलग उनके राज्य काल का समाप्ति का सूचक है। पोर इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि शक राजा का राज्य काल वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महाने वाद प्रारम्भ हया और उसको उसके कतिपय वत्मिक स्थितिकाल की समाप्ति के बाद ३६४ वर्ष ७ महीने और बीतने पर कल्कि राज्यारम्भ हुना। ऐसा कहने पर कल्कि का अस्तित्व समय बार निर्वाण से एक हजार वर्ष के भीतर न रहकर ११०० वर्ष के करीब हो जाता है और उससे एक हजार की नियत संख्या में तया दूसरे प्राचीन ग्रन्थों के कथन में भी बाधा
आती है और एक प्रकार से सारी ही काल गणना बिगड़ जातो है । इसी तरह यह भी स्पष्ट है कि हरिवंशपुराण और त्रिलोकप्रज्ञप्ति से उक्त शक काल सूचक पद्यों में जो क्रमशः अभवत् योर संजादो (सजातः) पदों का प्रयोग किया जाता है उनकाशकराजा हुआ-अर्थ शकराजा के अस्तित्व काल का समाप्ति का सूचक है, प्रारम्भसूचक अथवा शकराजा को शरोरोत्पत्ति या उसके जन्म का सुचक नहीं मोर त्रिलाकसार को गाथा में इन्हों जसा कोई क्रियापद अध्याहुत है।
यहां पर एक उदाहरण द्वारा मैं इस विषय को मोर भासष्ट कर देना चाहता हूँ 1 कहा जाता है और ग्राम तौर पर लिखने में भी आता है कि भगवान् पार्श्वनाथ से भगवान् महाबोर ढाई सी (२५०) वर्ष के बाद हुए । परन्तु इस ढाई सौ वर्ष बाद होने का क्या अर्थ? क्या पार्श्वनाथ के जन्म से महावीर का जन्म ढाई सौ वर्ष बाद हुमा? या पाश्वनाथ के निर्वाण से महाबीर का जन्म ढाई सौ वर्ष बाद उत्पन्न हुमा? तीनो में से एक भी बात सत्य नहीं है । तब सत्य क्या है ? इसका उत्तर श्री गुणभद्राचार्य के निम्न वाक्य में मिलता है :
पाश्वेश-तीर्थ-सन्तो पंचाशदद्विशताब्द के। तदभ्यन्तरवायुमहावीरोऽत्र जातवान् ॥२७६।।
- महापुराण, ७४वां पर्व इसमें बतलाया गया है कि श्रोपार्श्वनाथ तीर्थकर से ढाई सौ वर्ष के बाद, इसो समय के भीतर अपनी आयु को लिए हए, महावीर भगवान हुए, अर्थात् पाश्वनाथ के निर्माण से महावार का निर्वाण ढाई सौ वर्ष के बाद हुमा। इस वाक्य में तद्भ्यन्तरबायुः (इसो समय के भीतर अपना मायु को लिए हुए) यह पद महावीर का विशेषण है। इस विशेषण पद के