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भूमियों के उत्तर-दक्षिण भाग में भरत और ऐरावत नाम के दो क्षेत्र हैं, जिनके बीच में रूपाभ विजयार्द्ध पर्वत खड़ा है एवं उत्सर्पिणी तथा सविन के छः काल जिनमें चक्कर लगाया करते हैं। उन क्षेत्रों में भरत क्षेत्र को चौड़ाई पांच सीबीस योजन छः कला है। विजयार्द्ध पर्वत और गंगा, सिन्धु नाम के महानदियों के छः भाग हो गए हैं, जिन्हें छ: देश कहते हैं । उन्हीं देशों में मगध नाम का एक महादेश है। वह समस्त भू-मण्डल पर तिलक के समान सुशोभित है। वहां अनेक उत्सव सम्पन्न होते रहते हैं। वह धर्मात्मा सज्जनों का निवास स्थान है। इसके अतिरिक्त मटम्ब, कवंट, गांव, खेट, पतन, नगर बाहन, द्रोण आदि सभी बातों से मगध सुशोभित है। वहां के वृक्ष ऊँचे घनी छाया तथा फल से युक्त होते हैं। उन्हें देखकर कल्पवृक्ष का भान होता है। वहां के खेत धान्यादि उत्पन्न कर समग्र प्राणियों की रक्षा करते हैं। मनुष्यों का जीवन प्रदान करने वाली योषधियां भी प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होती हैं। वहां के सरोवरों का तो कहना ही क्या वे कवियों की मनोहर वाणी की भांति सुशोभित हो रहे हैं। कवियों के वचन निर्मल और गम्भीर होते हैं, उसी प्रकार वे तालाब भी निर्मल और गम्भीर (गहरे ) हैं । कवियों की वाणी में सरलता होती है अर्थात् नगरों से युक्त होती है उसी प्रकार के सरोवर भी सरस अर्थात् जल से पूरे हैं। कवियों के वचन पद्मवद्ध होते हैं, वे सरोबर भी पद्मबंध कमलों से सुशोभित हो रहे हैं। वहां की पर्वतीय कंदराम्रों में किन्नर जाति के देव लोग अपनी देवांगनाओं के साथ विहार करते हुए सदा गाया करते हैं। वहां के वन इतने रमणीय इतने सुन्दर होते हैं कि उन्हें देखकर स्वर्ग के देवता भी काम के वश में हो जाते हैं और वे अपनी देवांगनाओं के साथ क्रीड़ाएं करने लग जाते हैं । मगध में स्थान स्थान पर ग्वालों की स्त्रियां गायें चराती हुई दिखलाई देती थीं मे ऐसी सुन्दरी थीं कि उन्हें देखकर पचिक लोग अपना मार्ग भूल जाते थे। वहां की साधारण जनता धर्म, अर्थ, काम इन तीनों पुरुषार्थों में रत रहती थी। इसके साथ ही जिन धर्म के पालन में अपूर्व उत्साह दिखलाती थी शीलव्रत उनका शृंगार था। वहां जिनेन्द्र देव के गर्भ कल्याणक के समय दो रत्नों की वर्षा होती थी, उसे धारण कर वह भूमि वस्तुतः रत्नगर्भा हो गयी थी।
'पुरुष
उसी मगध में स्वर्ग लोक के समान रमणीक राजगृह नाम का एक नगर है वहां मनुष्य और देवता सभी निवास करते हैं। नगर के चारों ओर एक विस्तृत कोट बना हुआ था। वह कोट पक्षियों और विद्याधरों के मार्ग का अवरोधक वा एवं शत्रुषों के लिए भय उत्पन्न करता था उस कोट के निम्न भाग में निर्मल जल से भरी हुई लाई थी उसमें खिले हुए कमल अपनी मनोरम सुगन्धि से भ्रमरों को एकत्रित कर लिया करते थे। नगर में चन्दा के वर्ण जैसे श्वेत अनेक जिनालय सुशोभित हो रहे थे, जिनके शिखर की पताकायें प्राकाश को छूने का प्रयत्न कर रही थीं। यहां के मानव वृन्द जल-चन्दन आदि बाठो द्रयों से भगवान श्री जिनेन्द्र देव के चरण कमलों की पूजा कर उनके दर्शनों से अत्यन्त प्रसन्न होते थे । राजगृह के धर्मात्मा मांगने वालों की इच्छा से भी अधिक धन प्रदान करते थे तथा इस प्रकार चिरकाल तक पन का अपूर्व संग्रह कर कुबेर को भी लक्जत करने में कुण्ठित नहीं होते थे वहां के नवयुवक अपनी स्त्रियों को अपूर्व सुख पहुंचा रहे थे इसलिए वहां की सुन्दरियों को देखकर देवांगनाएं भी लज्जित होती थीं। वे अपने हाव-भाव विलास यादि के द्वारा अपने पति को स्वर्गीय सुखों का उपभोग कराती थीं। नगर के महलों की पंक्तियां अत्यन्त ऊंची थी। उसमें सुन्दरता और सफेदी इतनी अधिक थी कि उनके समक्ष चन्द्रमा को भी थोड़ी देर के लिए लज्जित होना पड़ता था। साथ ही बाजार की कतारें भी इतनी सुन्दरता के साथ निर्माण कराई गई थीं कि जिन्हें देखकर मुग्ध हो जाना पड़ता था। उनकी दीवारें मनियों से सुयोजित थीं वहां स्वर्ण रौप्य धन्न यादि का हर समय लेन-देन होता रहता था। उस समय नगर का शासन भार महाराज श्रेणिक के हाथ में था। वे सम्यग्दर्शन धारण करने बाले थे | समस्त सामन्तों के मुकुटों से उनके चरण कमल सूर्य से देदीप्यमान हो रहे थे। उनके वैभवशाली राज्य में प्रजा सुखी. श्री धर्मात्मा श्री प्रजा धर्म साधन में सर्वदा तल्लीन रहती थी अतएव उन्हें भय, मानसिक वेदना, शारीरिक संताप, दरिद्रता आदि का कभी शिकार नहीं बनना पड़ता था।
महाराज श्रेणिक अत्यन्त रूपवान थे। वे अपनी सुन्दरता से कामदेव को भी लज्जित कर देते थे। उनका तेज इतना जल था जो सूर्य को भी जीत लेता था तथा वे वाचकों को इतना धन देते थे कि जिसे देखकर कुबेर को भी लज्जित होना पड़ता था । शायद विधि ने समुद्र से गम्भीरता छीनकर, चन्द्रमा से सुन्दरता लेकर, पर्वत से अचलता, इन्द्रगुरु बृहस्पति से बुद्धि छोकर क्षेणिक का निर्माण किया था। महाराज श्रेणिक में तीनों प्रकार की शक्तियां थीं। वे सन्धिविग्रहादि छः गुणों को धारण करने वाले थे। वे अर्थ, धर्म, काम सबको सिद्ध करते हुए भी अपनी कर्मेन्द्रियों को वश में रखते थे। उनको विम कीर्ति चन्द्रमा के निर्मल प्रकाश की भांति चारों ओर व्याप्त थी । यदि ऐसा न होता तो देवांगनाओं द्वारा उनके गुणों के ज्ञान की आशा नहीं की जा सकती थी। उनके शासन का अभूतपूर्व प्रभाव चारों ओर फैल रहा था। महाराज के शत्रुगण ऐसे व्याकुल हो रहे थे, मानों उनका क्षण भर में हो विनाश होने वाला है । उनकी प्रभा द्वितीया के चन्द्रमा की क्षीण कला की भांति क्षीण
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