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हो गई थी। महाराज श्रेणिक को प्रतिभा के सब लोग कायल थे। उनकी प्रखर बुद्धि स्वभाव से ही प्रताप युक्त थी। अतएवं बह चारों प्रकार की राजविद्याओं को प्रकाशित कर रही थी। श्रेणिक की पत्नी का नाम चेलना था। वह कामदेव की पत्नी रति और इन्द्र को इन्द्राणी की भांति कांति और गुणों से सुशोभित थी। उसके नेत्र मृग के से थे। उसका मुख चन्द्रमा जैसा कांतिपूर्ण था। केश श्यामवर्ण के थे। कटि क्षीण, कुच गठित और बड़े आकार के थे। उसकी सुन्दरता देखने लायक थी। विस्तीर्ण ललाट, भौहें टेढ़ी और नाक तोते की तरह थी। उसके वचन और गमन मदोन्मत्त हाथी की तरह थे। उसकी नाभी सुन्दर और उसके अंग-प्रत्यंग सभी सुन्दर थे। वह सदा सन्तुष्ट रहती थी। उसकी प्रात्मा पवित्र और बुद्धि तीक्ष्ण थी शुद्ध वश में उत्पन्न होने के कारण वह हाव-भाव विलास आदि सभी गुणों से सुशोभित थी । वह स्त्रियों में प्रधान और पतिव्रता थी। याचकों के लिए हित करने बाला उत्तम दान देने वाली थी। वह शील और व्रतों को धारण करने वाली थी। उसका हृदय सम्यग्दर्शन से विभूषित था। वह सदा जिन धर्म के पालन में तत्पर रहा करती थी। अनेक देशों के अधिपति, विभिन्न प्रकार की सेनाओं से सुशोभित अत्यन्त समृद्धिशाली महाराज श्रेणिक, अपनी पत्नी चेलना के साथ भिन्न-भिन्न प्रकार के सुखों का उपमांग करते हुए जीवन यापन कर रहे थे।
श्रेणिक के प्रश्न का वर्णन
एक बार अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामो समवशरण के साथ अनेक देशों में विहार करते हुए विपुलाचल के मस्तक पर पाकर विराजमान हुए। भगवान तीन छत्रों से सुशोभित थे। वे अपने उपदेशामत से भव्य जीवों के ताप हर लेते थे। उनके साथ गौतम गणधर आदि अनेक मुनियों का विस्तृत समुदाय था। साथ ही सुरेन्द्र नागेन्द्र खगेन्द्र आदि उनकी पादबन्दना कर रहे थे । भगवान के पुण्य के महात्म्य से हिंसक जीव भी अपना अपना वैर भाव छोड़कर परस्पर प्रेम करने लग गये थे। भगवान के आगमन से पर्वत की छटा निराली हो गयी। वृक्ष फल फूलों से सुशोभित हो गए। उन वृक्षों से एक प्रकार की मीठी सुगन्धि फैलने लगी। वे सब कल्पवृक्ष बसे सुन्दर दीखने लगे। भगवान महावीर स्वामी को देखकर माली चकित हो गया। उसने बड़ी भक्ति के साथ भगवान को नमस्कार किया। इसके पश्चात् यह सब ऋतुओं के फल पुष्प लेकर महाराज श्रेणिक के राजद्वार पर जा पहुंचा। वहां पहुंचकर मालो ने द्वारपाल से निवेदन किया कि तू महाराज को सूचना दे पा कि उद्यान का माली आपकी सेवा में उपस्थित होना चाहता है । द्वारपाल ने जाकर महाराज से निवेदन किया कि आपके उद्यान का माली अापसे मिलने की आज्ञा मांग रहा है। महाराज ने माली को लाने के लिए तत्काल प्राज्ञा दी। यथा समय माली महाराज के सम्मुख पहुंचा । महाराज सिंहासन पर बैठे हुए थे। माली ने हाथ जोड़े और फल-पुरुप समर्पित कर सिर झकाया असमय में फल फूलों को देख कर महाराज को प्रसन्नता का ठिकाना न रहा । वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने तत्काल ही माली से पूछा-ये पुष्प तुम्हें कहां प्राप्त हुए हैं। उत्तर देते हुए माली ने बड़े विनम्र शब्दों में कहा-महाराज। विपूलाचल पर इन्द्रादि द्वारा पूज्य श्री महावीर स्वामी का प्रागमन हुआ है। उनके प्रभाव का ही यह फल है कि वृक्ष असमय में ही फल-फलों से लद गये हैं। अभी माली की बात समाप्त भी नहीं हो पायी थी कि महाराज सिंहासन से उठकर खड़े हो गये और विपलाचल पर्वत की दिशा की ओर सात पग चलकर भगवान महावीर स्वामी को उन्होंने प्रणाम किया। इसके बाद पुनः सिंहासन पर विराजमान हो गये। महाराज ने प्रसन्नता के साथ वस्त्राभूषणों से माली का सत्कार किया। यह ठीक ही है, ऐसा कौन व्यक्ति होगा जो भगवान के पधारने पर सन्तुष्ट न हो।
महाराज ने श्री महावीर स्वामी के दर्शनार्थ चलने के लिए नगर में भेरी बजवा दी। नगर के सभी भव्यलोग: चलने के लिए प्रस्तुत हुए। श्रेणिक अपनी प्रिया चेलना के साथ हाथी पर सवार हो प्रसन्नता पूर्वक भगवान के दर्शन के लिए चले । सब लोग महाबीर स्वामी के शुभ समवशरण में जा पहुंचे। महाराज श्रेणिक ने मोक्षरूपी अनन्त सुख प्रदान करने वाली भगवान की स्तुति प्रारम्भ की-हे भगवान । अाप परम पवित्र हैं, अतएव आपकी जय हो। आप संसार-सागर से पार करने वाले हैं, अतः आपकी जय हो। आप सबके हितैषी हैं, प्रतएव आपकी जय हो। ग्राप सुख के समुद्र हैं, अतः आपको जय हो। हे परमेष्ठिन । पाप समस्त संसारी जीबों के परम मित्र हैं, आप संसार रूपी महासागर से पार उतारने के लिए जहाज के तुल्य हैं, अतएव मोक्षा प्रदान कराने वाले भगवान, अापको बारम्बार नमस्कार है। पाप गुणों के भंडार हैं.