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पावा में होना नहीं बताया है। बौद्ध शास्त्रों में भी निग्गठ नाथ पुत्त (भगवान महावीर) को मल्लों को पावा में कालकवलित होने की बात नहीं मिलती। वहां केवल पावा का ही नाम निर्देश किया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पावा नामक कई नगर थे। एक मल्लों की पावा थी, दूसरी और कोई पाबा रही होगी। इन दोनों के मध्य में स्थित होने के कारण जिसको 'मझिमा पावा' कहा जाता था, वहीं पर महावीर भगवान की निर्वाण-भूमि के सम्बन्ध में गलतफहमी हुई है, उसका कारण यही भ्रान्त धारणा रही है कि उस काल में पावा नाम का एक हो नगर था। हमें लगता है, इस भ्रान्त धारणा का यह कारण है-बौद्ध शास्त्रों में कहीं 'मज्झिमा पावा' का उल्लेख नहीं मिलता और जैन शास्त्रों में कहीं मल्लों की पावा का उल्लेख नहीं मिलता । लेकिन ऐसा होना अकारण नहीं हैं। हो सकता है, बद्ध का प्रभाव मल्लों की पावा में अधिक रहा हो और महावीर का बिहार उस पोर न होकर नालन्दा की निकटवर्ती पावा को और अधिक रहा हो।
एक बात स्पष्ट है। बौद्ध शास्त्रों में निग्गठ नाथ पुत्त (महावोर) के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा गया है, उसमें सत्यांश कम है। इसलिए महावीर के सम्बन्ध में यदि किसी यात का निर्णय करना हो तो बौद्ध शास्त्रों के उन सन्दर्भो को प्रमाण नहीं माना जा सकता। उसके लिए तो जैन शास्त्रों का ही आधार ढूढ़ना होगा । महावीर की निर्वाण-भूमि का भी निर्णय करने के लिए जैन शास्त्रों को ही प्रमाण माना जा सकता है। महावीर के निर्वाण के प्रसग में बौद्ध शास्त्रों में जो कुछ भी लिखा गया है, जैन परम्परा उसे कभी स्वीकार नहीं कर सकती । जैसे बौद्ध शास्त्रों में वर्णन है कि गृहपति उपालि ने जव तथागत बुद्ध की प्रशंसा की तो निग्गंठ नाथ पुत्त को वह सहन नहीं हुई और उसने मुख से रक्त वमन किया। उसी में वह कालकवलित हो गया। इसी प्रकार लिखा है कि निग्गठ नाथ पुत्त की मृत्यु के बाद उनके अनुयायियों में दो भेद हो गये-निग्गंठ और श्वेत पट । धे परस्पर में कलह करने लगे और अपशब्द कहने लगे आदि । ये सब बातें इतिहास और समाज की मान्य परम्परा के विरुद्ध हैं। इसलिए हम उन्हें प्रमाण नहीं मान सकते ।
जैन शास्त्रों और परम्परागत मान्यता के अनुसार विहार की वर्तमान पायापुरी ही भगवान महावीर की निर्वाण-भूमि है । यहां पर तथा पावा नामक ग्राम में बहुत प्राचीन मन्दिरों के अवशेष और मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं । मूर्तियों के देखने से वे हजार-डेढ़ हजार वर्ष से भी प्राचीन मालूम होती हैं। इन्हें देखने से यह निश्चय हो जाता है कि इस पावापुरी को १३-१४ वीं शताब्दियों में तीर्थ नहीं बनाया गया है, बल्कि यह तो उससे शताब्दियों पूर्व से तीर्थ माना जाता रहा है, इसलिए हमारी दृढ़ मान्यता है कि वर्तमान पावापुरी में ही भगवान महावीर का निर्वाण हुआ था और भगवान का २५०० वां निर्वाण महोत्सव वहीं पर मनाना है।
अन्त में समस्त जैन समाज से हमारा कहना है । कि वर्तमान पावापुरी को ही भगवान महावीर की पवित्र निर्वाण-भमि मानकर उसके विकास की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए और भगवान महावीर के सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करने के लिए पावापुरी में महावीर विश्वविद्यालय और महावीर प्रचार केन्द्र जैसी योजनाओं को क्रियान्वित करने के लिए गम्भीरता के साथ विचार करना चाहिए।
जो पावापुरी के सम्बन्ध में निराधार प्रचार कर रहे हैं, उन्हें हम पाशीर्वाद देते हैं और चाहते हैं कि वे समझे कि इस अवसर पर भ्रामक प्रचार करने से कितनी क्षति पहुंच सकती है। इस समय तो संघबद्ध होकर निर्वाण महोत्सव को सफल बनाने का अवसर है, विवादों में शक्ति का अपव्यय करने का अवसर नहीं है । समय अल्प है, कार्य महान है। यह कार्य बढ़ संकल्प, निष्ठा और मंगठित प्रयत्नों द्वारा जैन समाज को सफल बनाना है।
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