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निकाल देने से इस वाक्य की जैसी स्थिति रहती है और जिस स्थिति में प्राम तौर पर महावीर के समय का उल्लेख किया जाता है ठीक वही स्थिति त्रिलोकसार की उक्त गाथा तथा हरिवंशपुराणादिक के उन शककालसूचक पद्यों की है। उनमें शक राजा के विशेषण रूप मे तदभ्यन्तरवायु इस प्राशय का पद अध्याहृत है, जिसके अयं का स्पष्टीकरण करते हुए ऊपर से लगाना चाहिए । बहुत सा काल गणना का यह विशेषण पद अध्याहन रूप में ही प्राण जान पड़ता है। और इसलिए जहां कोई बात स्पष्टतया अथवा प्रकरण से इसके विरुद्ध न हो वहां ऐसे अवसरों पर इस पद का प्राशय जरूर लिया जाना चाहिए।
जब यह स्पष्ट हो जाता है कि वीर निर्वाण से ६०५ वर्ष ५ महीने पर शक राजा के राज्य काल की समाप्ति हुई और यह काल ही शक सम्वत् की प्रवृत्ति का काल है जैसा कि ऊपर जाहिर किया जा चुका है तब यह स्वतः मानना पड़ता है कि विक्रम राजा का राज्यकाल भी वीर निर्वाण से ४७० वर्ष ५ महीने के अनन्तर समाप्त हो गया था और यही विक्रम सम्बत् की प्रवृत्ति का काल है-तभी दोनों सम्वतों में १३५ वर्ष का प्रसिद्ध अन्तर बनता है और इसलिए विक्रम सम्वत् को भी विक्रम के जन्म या राज्यारोहण का सम्बत् न कहकर, वीर निर्वाण या बुद्ध निर्वाण संवतादिक की तरह, उसकी स्मृति या यादगार में कायम किया हुआ मृत्यु संवत कहना चाहिए । विक्रम सम्वत् विक्रम की मृत्यु का संवत् है, यह बात कुछ दूसरे प्राचीन प्रमाणों से भी जानी जाती है, जिसका एक नमना थी अमितगति प्राचार्य का यह वाक्य है--
समारूढ पूतत्रिदशवसति विक्रमनृपे । सहस्त्रे वर्षाणां प्रभवति हि पंचाशदधिके । समाप्त पंचभ्यामयति धरिणी मुन्जनपतो सिते पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनधम ।
इसमें सुभाषितरत्नसंदोह नामक ग्रथ को समाप्त करते हए, स्पष्ट लिखा है कि विक्रम राजा के स्वर्गारोहण के बाद जब १०५० बां वर्ष संवत बीत रहा था और राजा मज पृथ्वी का पालन कर रहा था उस समय पौष शुक्ला पंचमी के दिन यह पवित्र तथा हितकारी शास्त्र समाप्त किया गया है। इन्हीं अमितगति प्राचार्य ने अपने दूसरे ग्रंथ धर्मपरीक्षा की समाप्ति का समय इस प्रकार दिया है :
संवत्सराणां विगते सहस्त्र ससप्तती विक्रमपाथिवस्य ।
इदं निषिध्यान्यमत समाप्तं जैनेन्द्रधर्मामृतयुक्तिशास्त्रम् ॥ इस पद्य में, यद्यपि, विक्रम संवत् १०७० के विगत होने पर प्रथ की समाप्ति का उल्लेख है और उसे स्वर्गारोहण अथवा मृत्यु का संवत् ऐसा कुछ नहीं दिया, फिर भी इस पद्य को पहले पद्य को रोशनी में पढ़ने से इस विषय में कोई सन्देह नहीं रहता कि अमितगति आचार्य ने प्रचलित विक्रम संवत का ही अपने ग्रन्थों में प्रयोग वि.या है और वह उस वत विक्रम की मृत्यु का संवत् माना जाता था। संवत के साथ में विक्रम की मत्यु का उल्लेख किया जाना अथवा न किया जाना एक ही बात थी-उससे कोई भेद नहीं पड़ता था.- इसीलिए इस पद्य में उसका उल्लेख नहीं किया गया। पहल पद्य में मुज के राज्य काल का उल्लेख इस विषस का और भी खास तौर से समर्थक हैं, क्योंकि इतिहास से प्रचलित वि० सवत् १०५० के समय जन्म संवत् ११३० अथवा राज्यसंवत् १११२ का प्रचलित होना ठहरता है और उस उक्त मूज के उत्तराधिकारी राजा भोज का भी वि० सं० १११२ से पूर्व ही देहावसान होना पाया जाता है।
अमितगति प्राचार्य के समय में, जिसे प्राज साढ़े नौ सी वर्ष के करीब हो गये हैं, विक्रम संवत् विक्रम की मृत्यु का संवत् माना जाता था यह बात उनसे कुछ समय के पहले के बने हए देवसेनाचार्य के ग्रन्थों से भी प्रमाणित होती है। देवसेनाचार्य ने अपना दर्शनसार ग्रथ विधामसंवत् ६० से बनाकर समाप्त किया है । इसमें कितने ही स्थानों पर विक्रमसंवत् का उल्लेख करते हुए उसे विक्रम की मृत्यु का संवत् सूचित किया है, जैसा कि इसकी निम्न गाथाओं से प्रकट है :
छत्तीसे बरिससये विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । सोरठे वलहीए उप्पण्णो सेबडो संघो।।११।। पंचसए छब्बीसे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । दक्षिणमहराजादो दाविडसंघो महामोहो॥२८॥
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