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instinct and conquered the whole country. For a long period now the influence of Kshatriya teaclcts completely suppressed the Brahmin power,
अर्थात्-महावीर ने डंके को चोट भारत में मुक्ति का ऐसा सन्देश घोषित किया कि, धर्म कोई महज सामाजिक रूढ़ि नहीं बल्कि बास्तबिक सत्य है-वस्तुस्वभाव है-पौर मुक्ति उस धर्म में प्राधय लेने से ही मिल सकती है, न कि समाज के बाह्य आचारों-विधिविधानों अथवा क्रियाकाण्डों का पालन करने से, और यह कि धर्म को दृष्टि में मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई भेद स्थायी नहीं रह सकता । कहते आश्चर्य होता है कि इस शिक्षण ने बद्धमूल हुई जाति को हद बन्दियों को शीघ्र ही तोड़ डाला और सम्पूर्ण देश पर विजय प्राप्त किया। इस वक्त क्षत्रिय गुरुषों के प्रभाव से बहुत समय के लिए ब्राह्मणों की सत्ता ने पूरी तौर से दबा दिया था।
इसी तरह लोकमान्य तिलक आदि देश के दूसरे भी कितने ही प्रसिद्ध हिन्दू विद्वानों ने, अहिंसादिक के विषय में महावीर भगवान अथवा उनके धर्म की ब्राह्मण धर्म पर गहरी छाप का होना स्वीकार किया था, जिनके वाक्यों को यहां पर उदघत करने की जरूरत नहीं है- अनेक पत्रों तथा पुस्तकों में वे छप चुके हैं । महात्मा गांधो तो जीवन भर भगवान महावीर के मुक्तकण्ठ से प्रशंसक बने रहे । विदेशी विद्वानों के भी बहुत से बाक्य महावीर की योग्यता, उनके प्रभाव और उनके शासन को महिमा-सम्बन्ध में उद्धृत किये जा सकते हैं, परन्तु उन्हें भी यहां छोड़ा जाता है।
वीर-शासन की विशेषता
भगवान महावीर ने संसार में सुख शान्ति स्थिर रखने और जनता का विकास सिद्ध करने के लिए चार महासिद्धांतों की--१ महिसा वाद, २ साम्यवाद, ३ अनेकान्तवाद (स्याद्वाद), और ४ कर्मबाद नामक महासत्यों की घोषणा की है और उनके द्वारा जनता को निम्न बातों की शिक्षा दी है:
१-निर्भय-निर्वर रह कर शांति के साथ जीना तथा दूसरों को जीने देना। २-राग-द्वेष, गहंकार नथा अन्याय पर विजय प्राप्त करना और अनुचित भेद भाव को त्यागना।
३--सर्वतोमुखी विशाल दृष्टि प्राप्त करके अथवा नये प्रमाण का सहारा लेकर सत्य का निर्णय तथा विरोध का परिहार करना ।
४-अपना उत्थान और पतन अपने हाथ में है ऐसा समझते हुए, स्वावलम्बी बनकर अपना हित और उत्कर्ष साधन तथा दूसरों के हितसाधन में मदद करना।
साथ ही. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पकचारित्र तीनों के समूच्चय को मोक्ष की प्राप्ति का एक उपाय अथवा मार्ग बतलाया है। ये सब सिद्धान्त इसने गहन, विशाल तथा महान् हैं और इनकी विस्तृत व्याख्याओं तथा गम्भीर विवेचनामों से इतने जैन ग्रन्थ भरे हुए हैं कि इनके स्वरूपादि विषय में यहाँ कोई चलती-सी बात कहना इनके गौरव को घटाने अथवा हल प्रति कछ अन्याय करने जैसा होगा। और इसलिए इस छोटे से निबन्ध में इनक स्वरूपादि का न लिखा जाना क्षमा किये जाने के योग्य है। इन पर तो अलग ही विस्तृत निबन्धों को लिखे जाने की जरूरत है । हां, स्वामी समन्तभद्र के निम्न बायानमार इतना जरूर बतलाना होगा कि महावीर भगवान का शासन नय प्रमाण के द्वारा वस्तु तत्व को बिल्कुल स्पष्ट करने वाला और सम्पूर्ण प्रवादियों के द्वारा बाध्य होने के साथ-साथ दया (अहिंसा), दम (संयम), त्याग (परिग्रहत्यजन) और समाधि (प्रशासन ध्यान) इन चारों की तत्परता को लिए हुए हैं, और यही सब उसकी विशेषता है अथवा इसीलिए वह अद्वितीय है।
दया-दम-त्याग-समाधिनिष्ठं नय-प्रमाण-प्रकृतांजसार्थम् । प्रधृष्यमन्यैरखिलेः प्रवादैजिन त्वदीयं मतमद्वितीयम् ।।६।।
- युक्त्यनुशासन इस वाक्य में दया को सबसे पहला स्थान दिया गया है और वह ठीक ही है। जब तक दया अथवा अहिसा को भावना नहीं तब तक संयम में प्रबत्ति नहीं होती, जब तक संयम में प्रवृत्ति नही तब तक त्याग नहीं बनता और जब तक त्याग नहीं तब तक समाधि नहीं बनती। पूर्व पूर्व धर्म उत्तरोत्तर धर्म का निमित कारण है। इसलिए धर्म में दया को पहला स्थान प्राप्त है और इसी से धर्मस्य मलं दया आदि वाक्यों के द्वारा दया को धर्म का मूल कहा गया है । अहिंसा को परम धर्म कहने की भी यही
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