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दोहा
इन्द्रभूमि गणधर प्रथम, बायुभूति पुन दोय । अग्निभूति जिन तृतिय भन, तुरिय सुधर्म जु होय ।।१६७|| मीय पंचम मौढ्य पट, पुण्यमित्र गुणभार । नाम प्रकंपन अन्धबल, प्रभा सोम अविकार ॥१६८।।
चौपाई
समोशरण श्री सन्मति नाथ, एकादश गणधरके साथ। चार ज्ञानके धरता सोह, प्रभु बाना प्रगटन भ्रम खोइ ।।१६।। अंग पूर्व धारी जे जती, सब तीनसै उत्तम मती। नव सहस्र नवसी मुनिराय, प्रभुके चरन नमो त्रित लाय ॥२०॥ अवधिज्ञान भूषित निरभंग, ते मुनिवर तेरहसै संग । केवलज्ञानी जिन सम जोई, सकल मातम वरन जोई ।।२०१।। ऋद्धि विक्रया जुत जु महेश, नवस उत्तम सबै मुनेश । चार ज्ञानके धारक और, पूज्य पंचस ते शिरमौर ।।२०।। उत्तरवादी मुनि सुख खान, सो मुनि प्रगट चारसं जान । सब मुनि जो पिडीकृत वारी, सहस चतुर्दश उत्तम धरी ॥२०३।। जे मूनि बर्धमान जिग संग, पहिरे तीन रतन निरभंग। चंदनादि छत्तीस हजार, नमैं अर्जिका प्रभुपद मार ।।२०४।। दर्शन ज्ञान चरन तप प्रती, एक लक्ष श्रावक जिन व्रती । तीन लक्ष थाबकनी साथ, प्रभुपाद नमैं शोस धर हाथ ।।२०५॥ देविन सहित देव बुधवान, असंख्यात कहिये परवान । प्रभुपद कमल नमैं कर सेव, पूजा सावन धरै बहु भेव ।।२०६।। सिंह सर्प आदिक तिरजन, वर विरोध न उपजै रंच । असंख्यात सब समता लियं, जिनवर भक्तिधर निज हिय ।।२०७॥ ए सब द्वादश सभा मझार, निवर्स भक्ति भाव उरधार । शनैः शन: प्रभु करै विहार, नाना देश ग्राम पूरभार २०५।। सबको करें धर्म उपदेश, मुक्तिपंथ भवि गहत महेश । जिन सूरज जब किरण प्रकाश, मत अज्ञान भयो जगनाश ॥२०॥ आरज खण्ड कियो संवोध तीस वरष विर अवरोध । क्रमकर पायापुरि उद्यान, शुभ तडाग जई वारे निधान ॥२१॥
निश्चित होण सातवें नरक में जायगा । इसी तरहका एक दूसरी ब्राह्मणको लड़को है जिसे लोग 'शुभ' नामसे पुकारते हैं । वह कदम गारन्थ है, वेदकर्म के फलसे शील एवं श्रेष्ठ गुणोंको देख सुनकर भो दुश्शीलता एवं विवेक भ्रष्टा है। उद्धन इन्द्रियांके वशमें होकर वह लम्पट हो गई है और उसको भो नरकायु संचित हो गई है। वह कापकारिणा है इसलिये रोद्रध्यानये मरेगा और पापोदयसे नाना दुःख-पूर्ण निन्य छठे नरक को तमःप्रभा नामको पृथ्वाम' जन्म घारण करंगों। जब गणवर स्यामाने राजा प्रेषिकको यह सब बत्तान्त सुना दिया तब राजा ने पुनः विनयावनत होकर पुत्र अमयकुमारके पूर्व-जन्म-बनान्त को पछा.... इस पर गणपर स्वामीने अनुग्रह पूर्वक अभयकुमारके भा पूर्व जन्म वृत्तान्तको कहना प्रारम्भ किया: -
इसो भरत-क्षेत्र (भारतवर्ष) में सुन्दर नामका एक ब्राह्मण कुमार था। वह लोक मढतानों के साथ वेदके अध्ययन एवं आभासमें तत्पर रहा करता था। इसो निमित्तसे वह एक दिन अहंदास जैनीके साथ मार्ग में कहा जाता या-बीच में एक पीपल के वृक्षके नीचे बहुतसे इकठे पत्थरों को देखकर उनको उसने अपना देव समम लिया और प्रदक्षिणा करके नमस्कार किया। उस मिथ्यातोको इस दुश्चेष्टाको देखकर 'अहंद्दास' को हमी प्रा गयी, फिर उन्होंने बाह्मण-कमार को ज्ञान प्रदान करने की शुभ इच्छासे पीपलके ऊपर पाद प्रहार किया प्रारबह पापल टूट गया। वहीं पर पड़ी हई कपि.
की एक लता थी जिसे देखकर अहंडासने कहा कि यह मेरा देव है। और प्रणाम किया। वह ब्राह्मण कुमार अहहासके कपट-व्यवहारको नहीं समझ सका और पूर्व ईष्यकि कारण उस लताको हाथमे उस्लाड डाला। बताया ब्राह्मण-कमारके सर्वा में जोरों से खुजली चलने लगी और वह डर गया उसने अहवाससे कहा-मित्र वास्त तुम्हारा देव है।" उसकी इस बात को सुनकर श्रावक अर्हद्दासने उस मिथ्यातको सत्य वात ममझा देने के प्रभप्राय कि-भले प्रादमी, ये सब वक्ष हैं किसी का कुछ बना-बिगाड़ नहीं सकते। पाप कर्मके उदयरो इन्हें एकेन्द्रो जन्म धारण
नाल है। तीर्थरके अतिरिक्त और कोई देव नहीं हो सकता। वे ही श्री ग्रहंत प्रभ सम्पूर्ण भव्यजीवोंको भोग एवं मोक्षके प्रदाता हैं । तीना लोक उन्हींको प्रणाम करता है और वे ही त्रैलोक्य वन्द्य भी र