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दोहा खदिरसार सुर सुख भुगत, सागर दोइ प्रत । मायु निकट तहं ते चयौ, पुण्य पाक कर संत ॥१७७।। उपथेणिक भूपाल गृह, सती श्रीमती नार। उपज धणिक नाम तुम, भवि श्रेणिक सुखकार ||१७८।। शुरवीर जिय देव वह, तुम सुत उपज्यौ सोइ । अभयकुमार प्रधान जग, तदभव शिवपद होइ ।। १७६।। कांची देवी क्रमहि सौ, चेटक नृपकी धीय । सती चेलना नार तुम, जिन पागम लवलीय ॥१८॥
चौपाई
सने भवान्तर निज समुदाय, सप्त तत्व धद्धा अधिकाय । श्री जिन चरणकमल प्रनमाय, गणधर नमि फिर पूछ राय ।।१८।। प्रबागम भव कहिये मोहि, जाते उर विकलप क्षय होहि । इन्द्रभूति बोल्यो गणराय. श्रेणिक नृप सुन चित्त लगाय ।।१८।। तम कीनौं प्रथम हि मिथ्यात, पंच पाप हिंसादिक जान । विषयनमें तुम चित वहु धरयो, वौद्ध भक्त अधरम आदर्यो॥१८॥ नारक गति अवगाढ़ बंधाय, थिति कोनी सप्तम भृ जाय । तात दुविध धर्म जे करें, निह सुरंग मुकति अनुसरै।।१४। असमवित बिन सूधर नाहि, शिवतरु मूल जुसमकित पाहि । ताकी दशविध भूमि महान, मोखमार्ग प्रथम हि सोपान ॥१८॥
पर बन्द स्वर्गकी अतुल सम्पत्तिको पाकर जिनेन्द्र देवकी पूजामें तत्पर है और अनेकानेक सून्दरी देवियों के साथ स्वर्ग सखको भोग रहा है। देवीके मुखसे अपने मित्रके सम्बन्धमें इन बातों को सुनकर वह सोचने लगा कि व्रतका इतना उत्तम फल शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है। जिस व्रतके प्रभावसे परलोकमें परमोत्तम सम्पदाएं प्राप्त होती है उस व्रतके बिना किसी को एक क्षण भी व्यर्थ व्यय नहीं करना चाहिए । इस प्रकार विचार करके वह शरवीर भी तत्क्षण ही समाधि गुप्त मुनिके पास गया और उन्हें प्रणाम करके प्रसन्नता पूर्वक ग्रहस्थ के पालने योग्य व्रतोंको ग्रहण कर लिया।
उस खदिरसार नामक भीलका जीव देव होकर स्वर्ग में दो सागर प्रायू पर्यन्त वहांसे अलौकिक सुखोंको भोग और अन्त में स्वर्गसे चयकर पुण्य फल से भव्योंकी श्रेणी में आप मोक्ष मार्गका ज्ञाता होकर तुम राजा कुणिक एवं श्रीमती रानीसे श्रेणिकके रूपमें उत्पन्न हुए हो।
इस प्रात्म-वृतान्तको सुनकर श्रेणिक राजाका मन श्री जिनेन्द्रप्रभु, देव एवं गुरु इत्यादिमें प्रत्याधिक श्रद्धाल हो । उसने मनिको पुनः पुनः प्रणाम करके फिर दुबारा प्रथन किया देव' मेरी श्रद्धा धार्मिक कायों में बहत विशेष है किन्त प्रमाणामें भी कोई व्रत हमें क्यों नहीं प्राप्त हुआ ? मुनिने उत्तर दिया कि बुद्धिमान, प्रथम तुमने अत्यन्त मिथ्यात्व परिणामों, से हिसादि पांच महापाप, अधिक प्रारम्भ एवं परिग्रह, अति विपयोपभोग तथा धर्महीन वौद्ध-गरु की भक्तिरो इस अममें नरकाय का बंध कर लिया है, यही कारण है कि तुम्हारे अल्पमात्र में भी कोई घात ग्रहण न करनेका। जिनके पास देवाय है ये भव्य जीव दो प्रकारके व्रतको ग्रहण कर लेते हैं। मोक्ष रूपी राजप्रसाद का प्रथम सोपान (सीडी) सम्यकता है और बह दस प्रकारका है । अाज्ञा, मार्ग, उपदेश, रुचि, बीच, संक्षेप, बिस्तार, अर्थ, अवगाइएवं परमाबगाढ़ ये दसों सम्यकत्वके नाम है। सर्वज्ञकी जिस पाज्ञाके प्रभाबसे छ: द्रव्योंमें अभिरचि उत्पन्न होती हैं वही याज्ञा नामका उत्तम सम्यक्त्व है। परिग्रहोंसे हीन, वस्त्रों से रहित एवं हाथोंसे ही पात्रका काम निकालने वाला मुनिका स्वरूप हो जाता है और यह मनि स्वरूप मोक्षका मार्ग है। इस मोक्ष मार्गमें जिस सम्यक्त्वसे श्रद्धा उत्पन्न होती है उसे मार्ग दर्शन कहते हैं। जो तिरसठ शलाका (पदयो धारक) महापुरुषोंके पुराणोंको सुनकर बीघ्र ही धर्मविनिश्चय किया जाता है उसे उपदेश दर्शन कहते हैं। प्राचारा नामक प्रथम अङमें कहे गये क्रियाओंको तुनकर ज्ञानी पुरुषोंकी जो उस ओर रुचि उत्पन्न हो जाती है उस रुचि सम्यकत्व कहा जाता है। चीज रूप पदके ग्रहण करने एवं उसके अर्थक सुननेसे जो रुचि उत्पन्न होती है उसे बीज दर्शन कहा जाता है। संक्षेप रूपमें ही पदार्थोके स्वरूप-कथन ही से जो श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है वही संक्षेप दर्शन है। प्रमाणनयके विस्तारसे पदार्थों के स्वरूपको विस्तार पूर्वक कहे जाने पर जो कुछ निश्चय किया है उसे विस्तार सम्यक्त्व कहा जाता है। द्वादशा रूपी समुद्र में प्रविष्ट होकर वचन विस्तार पर विशेष ध्यान नहीं देते हुए सारभून केवल उनके अर्थमात्र ग्रहण करनेकी रुचि या स्वभाव होता है वह