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चौपाई
ताहि समय कर मनहि हुलास, कीजे कछु श्रीजिनवर रास । भक्ति प्रभाव बढ़ यो उर आन, तब प्रभु वर्द्धमान गुणखान ।।३१३।। कयौ प्रस्तवन भाषा जोर, नवल सहित मद तन मन मोर | सकल कीति उपदेश प्रवान, पिता पुत्र मिलि रचे पुरान ।।३१४॥ सम्मति जिन गुण कोटि निबद्ध, यह पुनीत अति चरित संबद्ध । जो सेबै निज हिरदै ल्याय, ताके उर सब पातक जाय ।।३१५॥ जो यह ग्रन्य पढ़ें उर धार, औरनको जु पढ़ावं सार । ते परनबहू हैं गुणवान, और प्रमट अति उत्तम ज्ञान ।।३१६।। लिखे ग्रन्थ यह परम पवित्त, औरे देइ लिखाथ सुचित । मति श्रुत ज्ञान लहैं ते जीव, तप कर केबल पति जग पीव ॥३१७|| राग द्वेष नाशन गुणखान, कट कर्म अरि बेल निदान । या तन सत्तकार र नौं र रजा कासार ॥३१८।।
दोहा
प्रदभत षोडश स्वपन फल, जम्मबीर जिनराज । तिन गुण षोडश पर करण, रच्यो ग्रन्थ भवि काज ॥३१६।।
षोडश कारण भावना, भाई पूरब ठाव । तीर्थकर पद लहि चरित, षोडश तिनही प्रभाव ||३२०॥ ऊर्वलोक षोडश स्वरग, पुण्य लहै अवतार । तिन यह षोडश सरगकर, लीनों ग्रन्थहि पार ॥३२॥ षोडसकल जु चन्द्रमा, पूरणमासी जान । जिन षोडश अध्याय कर, पुरन भयो पुरान ।।३२२।।
ज्यों भामिनि उपमा वव, लहि षोडश श्रृंगार । यह पुरान अनुपम लस, कहि षोडश अधिकार ॥३२३।। सप्त प्रकृति उपशम खिपक, नोकपाय खय काज । ता हित नव सत साध कर, रच्यो ग्रन्थ जिनराज ॥३२४।। प्रष्ट कर्म नाशे सर्व, अष्टम पृथिवी दास । तिन वसु दून दुवार कर, अस्तुत किया अभ्यास ॥३२५।। सात महीना यादि लिख, कुछ अन्तर नव' अन्त । थिरता प्रलपहि ग्रंथ रचि, षोडश मास प्रजत ।।३२६।।
पुराण संख्या वर्णन
छप्पय उनतिस सय छयाछ, चोपही कही प्रवाने । दोहा चउसय पाठ, सोरठा द्वादश ठाने ।। वेशठ गीता छन्द जोगिया, पंचाहीं धर । वसु इकतीसा जान, चाल सैताल ठीक करि ।। अधिक सतासी एक सय, छन्द पद्धरी लेखिये । षट तेइसा गाथा सु चउ, छप्पय आठ विशेषिये ॥३२७।।
दोहा
करखा इक उनतीस,परिल पंच चच्चरी ठान । छन्द त्रिभंगी, एक दश, काव्य एक परवान ॥३२८।।
कि इस पवित्र ग्रन्थ को मैंने कीर्ति पूजा-प्रतिष्ठा इत्यादि के लालच में पड़कर नहीं बनाया, और अभिमानवश
री दिखाने के लिये भी नहीं बनाया, प्रत्युत यह तो केवल धर्म बुद्धि से बनाया गया है जिसमें भव्य जीवों का उपकार सारे कर्मों का भी नाश हो जाय । प्रभु की अनेकानेक उत्तम गुणों की माला में गंथकर इस परम पवित्र चरित्र को सकल
पीने रचा है। प्रभ की गुण कथा का ज्ञान होने के कारण यह दोष रहित है। फिर भी यदि प्रमाद एवं प्रज्ञान से यदि शति रह गई हो अथवा मैं कहीं असम्बन्ध कह दिया हाती पाठक उदारता पूर्वक क्षमा करंग तथा शुद्ध करके पढ़ेंगे । मुझ Tht की असम्बन्धता, अक्षर सन्धि एव मात्रादि दोषों को क्षमा करें। इस परम पवित्र ग्रन्थ को जो पड़े-पढ़ायंगे तथा सम्पूण
पचार करने के अभिप्राय से जो स्वयं लिखकर या लिखाकर प्रकाशित करेंगे वे पुण्यात्मा कहलायेंगे और ज्ञान दान के प्रभाव से संसार के सबॉत्तम सुखों को भोग कर अन्त में केवल ज्ञान को पायेंगे।
जोमहावीर प्रभ गुणों के रत्नाकर हैं, धर्मरुपी रत्न के उत्पत्ति है स्थान, भव्य जीवों के एकमात्र शरण हैं, इन्द्र इत्यादि