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ज्ञानावरणी कम हि चूर, ज्ञान अनन्तानन्त' जुपुर । दर्शनवरणों कर्म निवार, तत्र अलत दरशन गुण धार ॥२२२।। अन्तराय प्रकृतिनको जार, वल अनंत को करी सम्हार । नाम वर्मको जब खय कोन, सूक्षम गुण को प्रापति लोन १२२३।। प्राय कर्म जिन नाश्यौ जी, अवगाहन गुण पायो तव । प्रवन बेदनो कर्म निवार, तब ही गुरु लघु गुण अवधार ।।२२४।। गोत्र करम जब कोनो नाश, अन्याबाघ गुण हि परकाश यह विधि भुगतं सुस्य उतंग, निरुपम निराबाध निरभग ।।२२५।। नरसुर असुर खचरपति जोई, तीन जगत जिय सुख अवलोई । ते सब जो पिडो कृत करे, सिद्धन एक समय नहि जुरे ॥२२६।। नव इहि चतुर निकायौ देव', प्रभु निर्वाण जान सव भेव । अपने अपने वाहन साज, परिजन जूत पाये सुरराज ।।२२७॥ सब विभूति पूरब व्रत जान, गति नृत्य उत्सव उर पान । अन्तिम कल्याणक जिनराय, पावापुर पूजा करवाय ॥२२८।। प्रभु तन खिर कपूरबत जाय, नख अरु केश रहे समुदाय । ते लै सुरपति जिन तन रच्यो, मणिमय शिविका में पुन सत्रौ॥२२६।। भक्ति सहित तह पूजा करी, अप्ट द्रव्य जल ग्रादिक धरो : चन्दन अगर कपूर मंगाय, सर उतंग कोनो अधिकाय ||२३०॥
अपवित्र है और इसके विपरीत जीव सदा-सर्वदा स्वच्छ एवं परम निर्मल है। इसलिये स्नान करना व्यर्थ है और स्नान करने से पाप होता है । यदि सब मिथ्यात से मैले प्राणी, स्नान करने से शुद्ध हो जाए तो सदैव स्नान करते रहने वाले मत्स्य (मछली) आदि जल-जीवों को नमस्कार करना चाहिये, उन पर करुणा दृष्टि क्यों रखो जाता है ? इसलिए तुम्हें जानना चाहिए कि अर्हन्त दी तीर्थ है । उन्हीं के वचनामृत से सबके प्रान्तरिक पाप रूपी मल दूर हो सकत हैं
और वे ही शुद्धि प्रदान करने में समर्थ हैं। इस प्रकार उस ग्रहंदास ने विप्र कुमार को तीर्थ मूढ ना को भी दूर कर दिया। फिर आगे जाने पर पञ्चाग्नि में बैठ हा एक पुरुष को देखकर विप्र कुमार ने कहा कि इस प्रकार के तपस्वी हमारे धर्म में बहन होते हैं। उसको गोंक्ति को सुनकर अहं दास ने अनेक लौकिक शास्त्र-वचनों से प्रथम तो उस तपस्वी को ही मद-रहित किया. फिर स्पष्टतया उस ब्राह्मण कुमार से कहा कि ये खोटे तपस्वी क्या तप करेंगे? इस धरातल पर तो महान देव महन्त ही सर्वज्ञ हैं, निर्ग्रन्थ ही गुरु हैं, और दयालुता पूर्ण धर्म ही परमोतम है । जिनेन्द्र प्रभु के द्वारा कहा गया दीपक के समान प्रकाशमान जैन-शास्त्र सत्य है । जनमत बन्दनीय है और पाप हीन तप सबको शरण हैं । इन्हीं की उत्तमता को स्वीकार करना चाहिए । इसलिए मेरे मित्र, तुम भी मिथ्या दर्शन मिथ्या धर्म रूपी कुप्रया को शत्रु के समान दूर ही से कोड दो और प्रात्म कल्याण के लिए सम्यग्दर्शन को ग्रहण करो। इस प्रकार वार्तालाप करते हुए दोनों मित्र जव और एक प्राचीन त्योहार है। महपि स्वामी दयानन्द जी और छठे गुरु श्री हरगोविन्द जी से बहुत पहले से मनाया जाता है। श्री रामचन्द्र जी के प्रबोधा में जौटने की सशी में दीवाली के प्रारम्भ होने का उल्लस रामायण या किसी योर प्रानीन हिन्दू मन्र में नहीं मिलता । विष्णु जी तथा प्रशोक की दिग्विजय के कारण दीपावली का होना किसी ऐतिहासिक प्रमाण सिद्ध नहीं होता । प्राचीन जैन ग्रन्थों में कथन अवश्य है कि:
"जिनेन्द्रवीरोऽपि पिबोध्य पततं समंतयो भव्यसन हसंततिम् । प्रपद्य पाबानगरों मरोयसी मनोहरोद्यानवने यदीपके । १५॥
चतुषं कालेऽर्थचतुर्थमासविहीनताविश्चतुरब्दशेष के । मकौनिके स्वाति कृष्णभूतमुप्रभातसन्ध्याममये स्वभावतः ॥१६॥ प्रच तिकर्माणि निद्भयोगयो धिधूप पाती धादि बंधनम् । विबन्धनस्थानमवाए शंकरो निरन्तरायोरुमुखानुबन्धनम् ॥१७॥ ज्वलंत्नदीपालिकया प्रबुद्धया सुरासुरंदीविया प्रदीलया । तदारम पाचान गरी समन्तत:प्रदीरिताकाशलना प्रकाशते :.१६॥ तलस्तु लोकः प्रतिकर्षमादरात प्रसिद्धदीपालिकायब भारते । समुद्यत: पूजयितुं जिनेश्वर जिने निर्वाण विभूति भक्तिभाव ॥२॥
- - थी जिनसेनाचार्य ह िवंशपुराण, सर्ग ६६ भावार्थ... "जब चौथे काल के समान होने में तीन वर्ष साढ़े प्राय महीने रह गये थे तो कातिक की अमावस्या के प्रातः काल पाहायर नगरी में भ. महावीर ने मोक्ष प्राप्त किया, जिसके उपलक्ष में चारों प्रकार के देवतामों में बड़ा उत्सव मनाया प्रौर जहां तहा दीपक जलाये। जिनकी रोशनी से सारा माकाश जगमगा उठा था। उसी दिन में आज तक श्री जिनेन्द्र महावीर के निर्वाण-कस्याग की भक्ति से प्रेरित होकर लोग हर माल भरत क्षेत्र में दिवाली का उत्साह मनाते हैं।
कातिक बदी चौदश और प्रभातस्या की रात्रि में भ० महावीर समस्त कर्मरूपी मल कोर करके सिद हुए, कम-मल से शुद्धि के स्थान नवरात्रि को हडा निकाल कर घरों की शुद्धिकरते हैं। उसी दिन भ० महावीर के प्रथम गणधर इन्द्रगति गौतम जी ने कंपल जानरूपी सीधी जिसकी पूजा देवों तक ने की थी, उसक स्थान पर चञ्चल लक्ष्मी तथा गणेशजी की पूजा होता है । गणेषा नाम गण वर का