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लक्षण पंक्ति चारसे आठ, कर एकांतर पोषध ठाठ । विमान पंक्ति दिन सठ गहै, प्रथम हि बेला एक जुलहै ।।१० फिर एकांतर वार जु कर, याही भांत निरन्तर धरै । बारह तप व्रत बारह भांत, बारह बारह इक रस सात ।।११०॥ रसहि त्याग चौरासी एह, पुन कंजक बारह गन लेह । अर उदण्ड बारह माहार, मन चित वारह निरधार ॥११॥ एकल बारह बारह रुक्ष, इकसय चवालीस दिन स्वच्छ । अठ सय गंध त्रय सब वन्न, दुसय अठासी प्रोषध मन्म ।। ११२५॥ करै पारनै चोसठ जास, अव चन्द्रायत व्रत हर मास । शुकल' ग्रास इक दिन दिन बड़े, कृष्ण पक्षइक इक घट रहै ।। जिन मुख अवलोकना व्रत एव, वर्ष दिना दरशन कर जेब । जिन रात्री व्रत एक उपास, फागुन सुदि चोदश को भास ।११४॥ पूजा कर जागरण कराय, पहर पहर प्रति जिन दरशाय । बार बिजौरा व्रत हर मास, दोउ द्वादशी कर उपवास ।।११।। एक सो नब प्रत दिन चारस, ऊपर तहां पचासी लस । जेबा असि च उसय पचयास, इकतै नबलौं चढ़ि चढ़ि जास ।।११६॥ ऐ सौदस ब्रत छसं पचास, सौ जेवा सब पांचसै पचास । दशलौं चढ़े अनुक्रम सोइ, जो लौं यह व्रत पूरन होइ॥११७।।
चार कोश तक की पाक सन्तप्त जीवों को
परिवर्तन से प्रभ के परमोत्तम दिव्य तप के ही प्रभाव को व्यक्त कर रहे थे। धर्म के सम्राट प्रभु का जहां सभा मण्डप होता था वहां पृथिवी चारों ओर से प्रादर्श के समान पारदर्श एवं प्रभा पूर्ण दीख पड़ती थी। जब प्रभु जगत के जीवों को उद्बोधित करने के लिए चलते थे तब सब को सुख पहुंचाकर सेवा करने की इच्छा से वायु शोतल, मन्द एवं सुगन्ध युक्त होकर चलने लगती थी अतुल आनन्द को देने वाली प्रभु के जय जयकार की ध्वनि से मुखरित था और शोक सन्तप्त जीवों को उसे सुनकर अपार आनन्द प्राप्त होता था। प्रभु के सभा मण्डप के मागे चार कोश तक की पृथ्वी को वायुकुमार देव झाड़ बहार कर स्व एवं तण-कपट आदि से हीन कर दिया करते थे। इसी प्रकार स्तनितकुमार देव बिजली को चमक से युक्त अत्यन्त सगन्धित जलकी वर्षासे चारों ओर छिड़काव कर देते थे और देववृन्द प्रभु के पैर रखने के स्थान में रत्न जड़े हए प्रकाशमान सुवर्ण के बनाये हए पीले पंखरियों वाले सात सात कमल बना दिया करते थे और प्रभु के पाद-पद्म उसी स्वर्ण-कमल पर ही पड़ते थे। शालि इत्यादि सबको तुप्ति देने वाले अन्न बनस्पति धान्य अधिक एवं पुष्ट अन्न कणों से परिपूर्ण होकर एकदम झक जाते थे तथा अन्याय वृक्ष भी सम्पूर्ण ऋतुओं के फल से युक्त होकर विनयावनत पुरुष के समान नीचे की ओर लटक जाते थे और उनकी शोभा बढ़ जाया करती थी।
हान कर दिया करते
कमिटी के बर्तनों की चलती थीं और तीन करोड़ अशकियों का स्वामी था, वीर प्रभु से श्रावक के प्रत लिये। वहां के राजकुमार एवन्त ने जैन साध होने की ठान ली। माता-पिता से आज्ञा मांगी तो उन्होंने कहा कि तुम मभी बालक हो विधि अनुसार धर्म कसे पाल सकोगे - TIT ने कहा कि धर्म पालने की विशेषता आयु पर निर्भर नहीं, बल्कि थक्षा और विश्वास पर है। वैसे भी आयु का क्या भरोसा?
और बढ़ा समान है। यदि जीवित भी रहा तो यह केसे विश्वास कि सदा निरोगी रहंगा, रोगी से धर्म पालन नहीं हो सकता। जता होनसाधन की शक्ति ही नहीं रहती। यह मनुष्य जन्म बार-बार नहीं मिलता ! बीरप्रभु के उपदेश में मुझे यह दृढ़ विश्वास हो गया है कि जिन तिपय भौगों और इन्द्रियों की पूर्तियों को हम सुख समझते हैं वह वर्षों तक नरकों के महादुग्न सहने का कारण है। माता-पिता शाप तो हमेशा मेरा हित चाहते रहे हो तो अबिनासी हित से क्यों रोकते हो। राजा और रागो अपने बालक के प्रभावशाली वचन सुनकर सन्तुष्ट हो और
गे जिन दीक्षालेने की प्राज्ञा दे दी । जिस प्रकार कैदी को वन्दीमान से छुटने पर आनन्द आता है उसी प्रकार राजकूमार एवन्त आनन्द मानता हुआ सीधा भ०वीर के समवशरण में गया और उनके निकट जैन सा हो गया ।
महाराज उदयन पर वीर प्रभाव Udayana the great king of Sindhu-sauvira became the disciplc of Lord Mahavira,
Some Historical Jain Kings & Heroes P.9. प्राकत कथा संग्रह में "सिन्धु-सौचोर के सम्राट उदयन को एक बहुत ही बड़ा महाराजा बताया है, कि जिनकी कई सी मकट वन्द राज सेवा किया करते थे।' रोकनगर उनकी राजधानी घो। उनके राज्य में नर-नारी ही क्या पशु तक भी निर्भय थे इसलिए उनका राजनगर भय के नाम से प्रसिद्ध था, प्रभावती उनकी पटरानी थी, जो महाराजा चेटक की पुत्री और भ० महावीर की मौसी थी। महारानी प्रभावती पक्की जैनधर्मी थी उनकी धर्म निष्ठा ने ही राजा उदयन को जनधीं बनाया था। वह दोनों इतने वीर भक्त थे कि अपनी नगरी में एक सुन्दर जैन