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फूल
दशमि फूलन दश भार, दश सुपात्र पहिराइ अठार । फल दसमी दश फल कर ले, दश धावक के घर-घर देइ ।। १२६॥
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दीप संगद संदीप बनाय, जिनहि चढ़ाय माहार कराय भवादयामि व्रत दशदप पुरी दश धावक दे भोजन करो न्योम दर्शाम दश दर्शन कराइ, नये नये दश पात्र जिमाइ भंडार दर्शमि व्रत शक्ति जुपाय, दश जिनभवन भंडारचड़ाय । अथ छह दशमी बांकी और देखी कथाकोश के दौर श्रवण द्वादशी ताही दिना, अनशन करे शुद्ध मन तना जितनी शाख जोत व्रत घरं, तितनी वर्ष उजेनो करे और सबै व्रत करियो जेह, अरु तिहि कर्यो लयो फल तेह सो गणराय भूष प्रति कह्यो, भविजन सुन सब ही व्रतल
धूपदर्शमि व धूप पांच से जिन दिग भाग अभंग ॥१२०॥ वारामि सुहारीले बारा बारा दश घर दे ।।१३१।। दशमि उदंड उदंड अहार, पंच घरनि जौ मिलि प्रविकार ॥ १३२॥ अखय दसे सुन सावन मास तिहि व्रत कर केवलि उपवास ॥१३३|| दूध रस व्रत सुदि भावी घरं, बारस को पर भोजन करें ।। १३४॥ श्रनंत चतुर्दशि चौदह वर्ष भादों सुदी चोदशि को पर्व ||१३५।। नहिती व्रत दूनी परवान ।। १३६।।
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जथाशक्ति पूजा पर दान
। कथाकोश में लीजौ जान, इहां धरें बहु बढ़े पुरान ॥ १३७ ॥ इत्यादिक बहु नहि भार आदि अन्य सब साठ हजार ॥१३८॥
दोहा
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जो पूछी नृप वारता, सौतन उत्तर साफ फिर गणधर पद प्रणमिकं पूछे श्रेणिक राय इन्द्रभूति] गणराज कहि सुन बुधिवंत नरेश राजा श्रेणिक का भवान्तर वर्णन
कर सभा जय जय कियो, कथा नाथ गणराज || १३|| कहाँ भवांवर पूर्व मूहि मन विकल जिनिजाय ॥ १४० ।। एकचित तुम सरहो, कहीं भवान्तर
मनविकलप
१४१ ।।
चौपाई
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श्रारजखंड
ये ही शरणखंट मंभार, विध्याचल उत्सग पहार खरसार व किरात मांस बहारी जियकर घाव
दक्षिण दिश दरकूट विशाल यहां सघन वन अधिक रसाल ।। १४२ ।। एकदिना शुभ पुण्य उपाय दर समाधिगुप्त मुनिराय ॥ १४३॥
स्तुति करने लगा हे नाथ आज हम धन्य हुए हमारा जीवन सफल हुआ और मनुष्य जन्म] चरितार्थ हुआ। भला जगद्गुरु को पाना कितने सौभाग्य की बात है ? आपके कोमल चरणाविन्द के शुभ दर्शन से हमारे नेत्र घोर प्रमाण करने से हमारा मस्तक कृतार्थ हो गया आपकी पूजा करने से हाथ यात्रा करने से पैर स्तुति करने से वाणी पवित्र और सफल हो गयी पापके अनुपम अद्भुत और अलोकिक गुणों का चिन्तवन करने से मन पवित्र हो गया तथा सेवा करने यह शरीर कृतकृत्य हो गया । हमारे पापरूपी महाशत्रु को नष्ट करने के लिए ही सम्भवतः आपका यहां शुभागमन हुआ है। हे प्रभो, आपके जैसे विशाल जलमान (जहाज) के सामने तो यह क्षुद्र संसार रूपी सागर एक साधारण गड्डे के समान जान पड़ता है घत्र में एकदम निर्भय हो गया इस प्रकार सोवय स्वानी थी जिनेन्द्र प्रभुको स्तुति और गद्गद् चित्त से पूनः पुनः नमस्कार कर यह अत्यन्यपित हुआ और सत्यधर्म का उपदेश सुनने के लिए मनुष्यों के परकोष्ठ में जाकर विज्ञाभाव से बैठ गया। बैठ चुकने के बाद श्रद्धा पूर्वकणिक महाराज ने जगद्गुरु की गम्भीरनिकहे हुए पति गृहस्थ धर्म सम्पूर्ण तत्व तीर्थकरों के पुराण, पाप पुष्पका प्रवक् पृथक फल श्रेष्ठ धर्मके क्षमा इत्यादि लक्षण और प्रतों के विषय में सत्यन्त महत्वपूर्ण उपदेश सुना। इसके बाद उसने श्री गौतम स्वामी गणधर को नमस्कार करके पूछा कि देव, दया पूर्वक मेरे जन्मके वृतान्तको प्राप कहें। इस प्रकार महाराज थे कि के प्रश्न को सुनकर परोपकार थी वो गौतम गणधरने राजासे महा-हे बुद्धिमान, तू अपने तीन जन्मके पूर्व वृतान्त को सावधान होकर सुन:
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विशाल जम्बूद्वiप के विख्यात विन्ध्य पर्वत पर कुटव नाम के एक ग्राम में खदिरसार नामका एक भद्र परिणामो भील रहा करता था वह बहुत बुद्धिमान था एक दिन पुष्य के उदय से सब जीवोंक कल्याण कार्यमें तत्पर समाधि गुप्त नाम मुनिको
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