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परिमा दोज चौथ ए चन, आठ नवें चतुर्दशि पुन । कृष्ण पक्ष छट आटेनमें, तेरदा चौदा ए त्रय समं ॥१०॥ लघु दुयकाबलि इकसय बोस, बेला प्रोषध कर चौबीस । इक अहार अड़तालिस और, सबै पारनै चौविस जोर ।।१०२॥ अब कनकावलि कर इक वर्ष, महिमा प्रतिछह प्रोषध पर्व । शुक्ल प्रतिपदा पंचमि दसै, कृष्णा दोज छह द्वादश बस ॥१०३।। बड़ी कनक बलि व्रतहि वखान, दिन जु पंच सत बाइस मान । प्रोषध कर बहुसै चौंतोस, जेवा सबै अठासो दीस ॥१०४।। इकावलि इक वर्ष समात, मासहि प्रति प्रौषध कर साप्त । कृष्ण चौथ चौदश अष्टमी, अरु आठ परिमा पंचमी ।।१०।। वज्रमध्य ब्रत दिन अड़तीस, जवा नव प्रोषध उनतीस । मृदंग मध्य व्रत कर दिन तीस, सत जेवा प्रोषध तेवीस ।।१०६॥ मुरज मध्य दिन तेतिस जान, छब्बिस प्रोषध जंवा सात । मेरु पंक्ति दो सय दिन बसी, सय बिस प्रोषध जेबा असी ॥१०॥ नन्दीश्वर पंकति व्रत होइ, अष्टोत्तर सय दिन अवलोइ । प्रोषध तिहि अंठावन धरै, सब पंचास पारने करै।।१०।।
का एकदम अभाव था। त्रिजगद्गुरु महाबीर प्रभु के अतिशय के कारण चारों दिशाओं में चार मुख थे। वे सभी को अपने सम्मुख ही पाते थे। सभी जीव अत्यन्त निकट थे और उन्हें किसी प्रकार का कोई भय नहीं था। धातिया कर्मा के नाश हो जाने के बाद प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। वे सम्पूर्ण विद्याओं के स्वामी थे और उनके नेत्र भो तेजस्वी ही थे। के दिव्य शरीरकी न कहीं छाया (परछाई) पड़ो, न आँखों के पलक बन्द हुए और न कभी नत्र एवं केशों को ही बद्धि हई। घातिया कर्म रूपी शत्रुओं के नाश हो जाने पर उस बिभु के दस दिव्य अतिशय स्वतः प्रकट हो गये। सब अंगों से पर्थ स्वरूप अर्ध मागधी भाषा निकली । यही प्रभको दिव्य भाषा थो। यह सभी लोगों के प्रानन्द को देने वाली, समग्र सन्देह को मिटाने बाली, दो प्रकार के धर्मको एवं सम्पूर्ण पदार्थों की कहने वाली हुई । इस सद्गुरु के परम पाश्चर्योत्पादक प्रभाव से स्वभावतः जाति विरोधी सर्प एवं मेवले इत्यादि जीव परस्पर के बैर भाव को मिटाकर परम मित्र की तरह एक ही स्थान पर रहने लगे। और सब वृक्षोंमें एक साथ सम्पुर्ण ऋतुओं के फल फूल एक ही साथ फल गये। ये इस विचित्र
उनको बन्दना को गये और भक्तिपूर्वक नमस्कार करके भ० महावीर में पूछा कि क्या शासन चलाने वाले मेरे जैसे अधिक के लिये शाट रक्षा लिये तलवार उठाना और अपराधियों को दण्ड देना अहिंसा धर्म के विरुद्ध है? भ० महाबीर की वाणी खिरी, जिसमें उन्होंने सना कि देशारामा लिए सैनिक धर्म तो धावक का प्रथम धर्म है । सैनिक धर्म के बिना अत्याचारी का अन्त नहीं होता और बिना अत्याचारों का अन्त पिए देश में शान्ति की स्थापना नहीं हो सकती और बिना शांति के गृहस्थ धर्म का पालन नहीं हो सकता और बिना गहस्यों के मुनिधर्म सम्पुर्णरूप से पालन नहीं हो सकता। इसलिए देश में शांति रखने तथा अत्याचारों को नष्ट करने हेतु विरोधी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना और अपराधियों को न्यायपक दण्ड देना गहस्थियों के लिये अहिंसा धर्म है।" सेनापति मिहभद्र ने अहिंसा धर्म की इतनी विशालता वोरबाणी में सनकर तुरन्त ही श्रावक धर्म के ब्रत ले लिये।
प्रानन्द श्रायक पर वीर प्रभाव सेठ आनन्द वाणिज्य ग्राम के बड़े प्रसिद्ध साहुकार थे, चार करोड़ अशकियां उनके पास नकद थी। बार म.रोड़ अशफिया ब्याज पर और चार करोड़ अगफियाँ कारोवार में लगी हुई थी। करोड़ों अशकियों की जमीन-जायदाद थी। चालीस हजार गाय, भैस, घोडे, बल आदि प्रशाधन था । जब भ० महावीर का समबरण उनकी नगरी में आया तो आनन्द और उनकी पत्नी शिवनन्दा ने भ. बोरगे धावक के प्रत लिए और यह प्रतिज्ञा कर ली कि जो हमारे पास है उसमें अधिक अपने पास न रखगे। पाज पर चढ़े हुए चार करोड अशफियों का सद पता करेंनो सम्पति बह जाये, कारोबार में लाभ हो तो सम्मलि बढ़े। हर साल एक बच्चा हो तो चालीरा हजार पशुधन में सालभर में चालीस हजार बच्ने बह जाने उनको बेचें तो नगदी बढ़ जावे इसलिए लोभ और मोह नष्ट हो जाने से वह महासन्तोषी और इच्छारहित होकर श्रावक प्रत पारने के कारण वह इस दुखी संसार में भी महासुखी थे।
महाराजा एवन्त पर वोर प्रभाव पोलसपुर के सम्राट विक्रम के पुत्र एवन्तकुमार ने भ० महावीर के निकट दीक्षा ली। -श्रीचौथमल जी : भ. महावीर का आदर्श जीवन, १० ४१६ ।
पोलासपुर में नीर-समवसरण पाया तो वहां के राजा विक्रम में उनका स्वागत किया । शब्दालपुत्र नाम के कुम्हार ने जिसकी पाँचौ
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