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चार दान की चौथ जु चार, जलगालन परिमा इक धार । सामायिक अंथी हूँ दोज, रत्नत्रय श्रय तीन समेत ।।७।। एक वेपन विधि प्रोषध कर, एक बार अन्तर नहि पर। अष्ट करम चूरन व्रत जान, चौसठ दिनको कहयो प्रमान ।।७१।। अष्टमि वसु केवल उपवास, अष्टमि आठ कंजकी जास । अष्टमि बसु इक तंदुल खाव, अष्टमि ग्राउ ग्राम इक पाव ।।७२।। मठ अष्टम कुरछी भोजन्न, अष्ट अष्टमी रस इक अन्न । एकल ठानो अष्टमि अाठ, वसु अष्टमि रक्षान्न सु ठाठ ॥७३॥ णमोकार व्रत अब सुन राज, सत्तर दिन एकांतर साज । तीर्थकर चौबीस और, अड़तालीस इकांतर ठौर ।।७४॥ पुन समकित चौवीस हि भनौ, अड़तालिस एकांतर गनौ। भार- पचीसी सत लान. एकांना पगाशान ॥७॥ पल्य विधान सू चौतिस दिना, पच्चिस प्रोषध नव पारना । एकहित पंचहि लौं चढ़े, फेर उतरि पहले लौं र ॥७॥
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सम्पूर्ण जगतके स्वामी एवं मुक्ति रूपिणी सुन्दरी स्त्री के प्रियतमपति पाप हैं । आपको पुनः पुनः नमस्कार है । हे देव सम्मति महावीर, मैं अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिए आपको नत मस्तक होकर कोटिश: प्रणाम करता हूँ। हे स्वामिन, हमें और किसी अन्य वस्तुकी अभिलाया नहीं है बस, जन्म-जन्ममें आपको श्रेष्ठ भक्तिकी कामना है, वही आप हमें स्तुति, भक्ति, सेवा एवं नमस्कार के फल स्वरूप प्रदान करने का अनुग्रह करे ! तीनों लोक में अत्यन्त उत्तम सुख एवं मनोकामना का पूर्ण करने वाले सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्रकी प्राप्ति हो यही आपके चरणारबिन्दकी भक्ति करके मैं पाना चाहता है।
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अनेक जैन ग्रन्थों से खोजा जा सकता है इस प्रकार जैन धर्म को खूब अच्छी तरह से परखकर उनका मिथ्यात्व नष्ट होकर महाराजा श्रेणिक बिम्बसार ऐसे पक्के सम्यग्दष्टि जनी हो गये, कि स्वर्ग के देव भी उनके सम्यग्दर्शन को परीक्षा करने के लिए गज गृह आये और उसे पूरा पाकर उनकी बड़ी प्रशंसा की । यह भ० महावीर की भक्ति और श्रद्धा का ही फल है कि आने वाले उत्सपिणी युग में महाराजा श्रोणिक 'पद्मनाभ' नाम के प्रथम तीर्थकर होंगे।
राजकुमार मेघकुमार पर वीर प्रभाव Megakumar, a son of Shrenaka was ordained a member of the order of Mahavira.
--Mr. VS. Tank, VOA. II. P.68. दीर वाणी के मीडे रस को पीकर महाराजा श्रेरिणक के पुत्र मेघकुमार भगवान् महावीर के निकट जैन साधु हो गये, परन्त राजसालों के पानन्द भोगने वालों का चंचल हुदय एकदम कठोर तपस्या में कैसे लगे? पिछले भोगविलास की याद आने से वह घर जाने की आशा के लिए म० महावीर के निकट आया? इससे पहले कि वह कुछ कहे, भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि खिरी जिसमें उसमें सूना पिकमार को याद नही कि अबसे तीसरे भव में तुम एक हाथी थे एक दिन तुम पानी पीने के लिए तालाब पर गये तो दलदल में फंस गये। तुम्हारे शत्रयों ने उचित अवसर जानकर इतनी मार-पीट की कि तुम्हारी मृत्यु हो गई । क्पा तपस्या की बेदना उससे भी अधिक है। दूसरे जन्म में फिर बाकी हा दावानल से जान बचाने के लिए उचित स्थान पर पहुंचे तो वहाँ पहले ही पशु मौजूद थे, बड़ी कठिनाई से सुकड़ कर खडे हो गये। शरीर खज लाने के लिए तुमने अपना पांव उठाया तो उस जगह एक खरगोगा अपनी जान बचाने को आ गया, जिसे देखकर केवल इसलिए कि खरगोन मर न जाए अपने उस पर को ऊपर उठाये रखा । जब गवानल शान्त हुमा और तुम बहां से निकले तो निरन्तर तीन दिन तक तीन टांगों से खडा रहने से तुम्हारा सारा शरीर जकड़ गया था, बाग धड़ाम से नीचे गिर पड़े, जिससे इतनी अधिक चोट पायी कि तुम्हारी मत्य हो गई। गति में तुम इतने धीर, धीर और सहन-शक्ति के स्वामी रहे हो तो क्या अब मनुष्य जन्म में श्रमण अवस्था से घबरा गये हो ? अनेक शरमा को बुद्ध में पछाड़ देने वाले पूरवीर होकर साधना की पराक्रम भूमि में आकर कर्मरूपी शत्रुओं से युद्ध करने में भय मान रहे हो।
वीर-उपदेदारूपी जल से मेघकुमार की मोहरूपी अग्नि शान्त हो गई। विश्वासपूर्वक संयम धारकर आत्मिक सुखों का मानन्द बटने के कारण वह आत्मिक ध्यान में दृढ़ता से लीन रहने लगे।
अभयकुमार पर वीर प्रभाव Prince Abbaya Kumar sdopted the life of a Jain Monk Some Historical Jain Kinos Heroes, P. 9.
महाराजा श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार ने म० महावीर से अपने पूर्व-जन्म पूर्छ, तो वीर दिव्य-ध्वनि में उसने सूना "अबसे तीसरे मन