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दशलक्षण पुन तीन हु बार, शुक्लपक्ष पंचमित धार । दश दिन कर भाव सन्तोष, दशह अंग धारे निर्दोष ॥६॥ पहपांजलि पुन तीन ह मास, पंचमते पंचो दिन भास। अरु रतनत्रय तीन ह पक्ष, तेरससै त्रय दिनकर दक्ष ।।६३।। मुठी विधान मास त्रय येह, मुठी चढ़ाय पाहार हि लेह । अष्टानक ब्रत कर उर गाढ़, कातिक फागुन मास असाढ़ ॥६४॥ शुक्ल पक्ष अष्टम दिन आठ, नन्दीश्वर जिन पूजा ठाठ। प्रोषधक कांजिक इक बार, अष्ट वरप उद्यापन धार ॥६५।। अरु संकट व्रत तीनो साख, तेरस से दिन तीन जु भाख । करै जेष्ठ जिनवर इकतास, जेठ बदी परमासे जान ॥६६॥ पादितवार कर नव वार, सुदि असाढ़ भादोंभर धार । षटरस षट महिना परजंत, एक एक रस छोड़े संत ॥६७।। नित रस सात बार परवान, इक इक रस त्यागै दिनमान । त्रेपन त्रिया व्रत हि अवभास, तिनके है त्रेपन उपवास ॥६८|| अष्ट मूल गुण अष्टम पाठ, बारह प्रत द्वादशको ठाठ । बारह तप बारह द्वादशी, प्रलिमा ग्यारह एकादशी ॥६६॥
मार्ग रूपी मदा अन्धकार को टट करने स्वर्ग एवं मोका अति प्रशस्त पथ दिखाने वाला कदाचित कोई दूसरा नहीं है। भव्यों का उपकार करने वाले एकमात्र प्राप ही तो हैं । इसलिये हे स्वामिन, प्रापको पुनः पुनः नमस्कार है। आप गुणोंके रत्नाकर अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, एवं अनन्त सुखशाली माप हैं। माप अनन्त, बल स्वरूप हैं, दिव्यमति हैं, महालक्ष्मीसे विभूषित हैं। आपको बार बार नमस्कार है। आप यद्यपि असंख्य देवियों से घिरे हुए हैं तथापि पूर्ण ब्रह्मचारी हैं। उदय प्राप्त जानशाली माप हैं, मोहशत्रु-नाशक हैं, इसलिए आपको नमस्कार है । शान्तरूप से ही कर्म-शत्रु को परास्त करने वाले,
.- -.. काली जाये। राजा यह सुनकर चिन्ता में पड़ गया कि भरी सभा में मठ कसे कहा जावेगा। राजा को चुप देख, स्वस्तिमती ने कहा कि क्या आने वचनों का भी भव नहीं? राजा ने मजबूर होकर कहा कि अच्छा ! वचनों की पूर्ति होगी।
हसरे दिन नारद और पर्वत राजा के दरबार में गये । नारद ने अज का अर्थ शषित रहित शाली तथा जी और पर्वत ने छला (बकरा) बतलाया। इस पर राजा ने कहा जसे पर्वत कहे वसे ही ठीक है। तव से यज्ञों में पशु होम होने की रोति प्रचलित हुई।
महाराजा श्रेशिक ने भगवान महावीर से अपने पिछले जन्म के हाल पूछे तो भगवान की बारगी खिरी जिसमें उसने सुना-"ए श्रेणिक ! सेतीसरे भव में तुम एक बहत पापी और मांसाहारी भील थे। मुनि महाराज ने तुम्हें मांस के त्याग का उपदेश दिया परन्तु तुम सहमत न हा तो उन्होंने कहा कि तुम ऐसे मांस के त्याग की प्रतिज्ञा कर लो कि जिसको तुमने न कभी खाया है और न आइन्दा खाने की इच्छा हो, इसमें कोई हर्ज न जानकर आपने कौवे के मांस-भक्षरण का त्याग जीवन भरके लिए कर दिया । अचानक आप बीमार हो गये, हकीमों ने कौवे का संस दवा के रूप में बताया, परन्तु आपने इंकार कर दिया कि मैंने एक जन साधु से जीवन भर के लिए कौवे के मांस के त्याग का संकल्प लिया । है। मर जाना मंजूर है मगर प्रतिज्ञा भंग नहीं करूंगा। सबने समझाया कि बीमारी में प्राणों की रक्षा के कारण दवा के तौर पर थोड़ा-सा खा लेने में करत हर्ज नहीं, परन्तु आपने प्रतिज्ञा को भंग करने से स्पष्ट इंकार कर दिया । जिसके पुण्य फल से मरकर स्वर्ग में देव हए और वहां के सख भोगकर भारत के इतने प्रतापी सम्राट् हुए।"
महाराजा श्रेणिक ने एक देव के मुकुट में मेंढक का चिन्ह देखकर आश्चर्य से पूछा कि इसके मकुट में मेंढक का चिन्ह क्यों है? उसर में सना "हे राजन् ! यह नियम है कि जो मायाचारी करता है वह अवश्य पशुमति के दुःख भोगता है। तुम्हारे नगर राजगृह में नागदत नाम
तो चंचल लक्ष्मी के लोभ में वे छल-कपट अधिक किया करते थे जिसके कारण मरकर अपने ही घर की बावड़ी में मेंनक हो गये । उसो बावडी में से एक कमल का फूल मुख में दबाकर बह यहां समवशरण में आ रहा था कि रास्ते में तुम्हारे हाथी के पांव के गीचे आकर उसकी
गई। उसके भाव जितेन्द्र भक्ति के थे जिसके पुण्य फल से वह मेंढक स्वर्ग में देव हुआ, स्वर्ग के देव जन्म में ही अवधिज्ञानी होते हैं. अवधि जापिळले हाल को जानकर वह अपने संकल्प को पूरा करने के लिए यहां आया है। मेंढक के जन्म से उसका उत्थान हुआ है इसलिए उसने अपने मुकुट में मेंढक का चिन्ह बना रखा है।"
णिक ने वीर वाणी में जिनेन्द्र भक्ति का महात्म्य सुना तो उसे जिनेन्द्र भक्ति में दृढ़ विश्वास हो गया और उसने अन्य जैन मन्दिर बनवाए। राजगह के पुराने संडरों में उस समय की मूर्तियां आदि मिली हैं, सम्मेदशिखर पर्वत पर जिन निपचिका में बनवाई। उसने अपनी होकाओं को दूर करने के लिए भगवान महावीर से ६० हजार प्रश्न पूछे जिनका विस्तार आदिपुराण, पद्मपुराण, हरिवंशपुराए, पाण्डवपुराण आदि