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व्रत नक्षत्र भाल उर धरै सो चौवन एकांतर करै। लब्धि विधान करीत येह, हैं बत्तीस एकान्तर तह । ७७।। सप्तकुम्भ व्रत बासठ दिना, पैतालिस सत्रह पारना । बड़ी सिंहको इन व्रत सुनो, इकसै अडसह दिनको गुनौ ।।७८॥ इकसै सेंतीस हि उपवास, करै पारने इकयिस जास । त्रिगुणसार वत इकतालोस, ग्यारा जेवा प्रोषध तीस ।।७६॥ भई वन सिंह क्रिडनी जान, दो सय दिन ताको परवान। इकसय पचहत्तर उपवास, करं पारने पच्चिस जास ॥८॥ चारितशुद्धि व्रत गुणधाम, बारहस चौतीसा नाम । तेरह अंक नवति उपवास, कर निरन्तर पूरन जास ।।१। व्रत ज सर्वतोभद्र विचार, सौं दिनकी मर्यादा धार । प्रोषध पचहत्तर परवान, अरु पच्चीस पारने जान ।।८।। महा सर्वतोभद्र हि जास, दौस चोंबन दिन परकास । इक सय पचावन उपवास, और पारने कर उनचास ॥१३॥ व्रत दुखहरण एकसं वीस, तितने हा एकातर दोस । यजुपुरन्दर हरि हरिमास शुकलाश्रम लौं एकामास ||८४॥
. यद्यपि जगत गुरु श्री महाबीर तीर्थकर संसार के समुद्बोधन में रत थे तथापि पूर्वोक्त प्रकार से इन्द्र के द्वारा स्तुति की जाने पर उन्होंने सब भव्यों को मिथ्या मार्ग से दूर हटाकर निभ्रान्त मोक्ष मार्गपर लाने के लिये बिहार करने का निश्चय किया। जब प्रभु बिहार करने के लिए उद्यत हुए तब बारह प्रकारके जीव समूहों ने उन्हें घेर रखा था। देववन्द चमर हिलाकर सेवा कर रहे थे, तीन परमोत्तम छत्र शोभायमान हो रहे थे और उनके पास महा सम्पदायें एकत्रित थीं। करोड़ों वाद्य
में अभयकुमार तुम एक बड़े विद्वान् ब्राह्मण ये परन्तु जात-पात और छूत-छात के भेदों में इतने फंसे हुए थे कि शूद की छाया पड़ने से भी तुम अपने आपको अपवित्र समझ बैठते थे । एक दिन आपकी भेंट एक थाक से हो गई। उसने आपको समझाया कि धर्म का सम्बन्ध जाति या शरीर से नहीं बल्कि आत्मा से है । आत्मा शरीर से भिन्न है, ऊंच हो या नीच, मनुष्य हो या पशु, ब्राह्मण हो या चाण्डाल, आत्मिक अनति करने की शक्ति सबमें एक समान है । जिससे प्रभावित होकर जाति-पांति विरोध त्याग कर आप श्रावक हो गए और विश्वासपूर्वक जैन धर्म पालने के कारण मरकर स्वर्ग में देव हुए और वहाँ से आकर श्रेणिक जैसे महाप्रतापी सम्राट् के भाग्यशाली राजकुमार हुए हो।"
भगवान महावीर के उत्तर से अभयकुमार के हृदय के कपाट खुल गये । यह विचार करते-करते “जब थावक धर्म के पालने से इस लोक में राज्य सुख और परलोक में स्वर्गों के भोग बिना मांगे आपसे आप मिल जाते हैं तो मुनि धर्म के पालने से मोक्ष के अविनाशी सुखों की प्राप्ति में क्या संदेह हो सकता है ? प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या ? भ० महावीर स्वयं हमारे जैसे पृथ्वी पर चलने-फिरने वाले मनुष्य ही तो थे, जो मुनिधर्म धारण करके हमारे देखते ही देखते लगभग १२ वर्ष की तपस्या से अनन्तानन्त दर्शन, मान, सुख और धीर्य के घारी परमात्मा हो गये । मनुष्य जन्म बड़ा दुलन है फिर मिले न मिले" वह म. महावीर के निकट जैन साधु हो गये।
वारिषेण पर वीर प्रभाव Amongst the sons of Shrenika Bimbisara, Varisena is famous for his picty and endurance of austerities. He was ordained as a naked saint by Mahavira and attained Liberation
--Some Historical Jain Kings & Heroses P. 14. सम्राट श्रेणिक के पुत्र वारिषेण इतने पक्के प्रती धावक थे कि तप का अभ्यास करने के लिए बह रात्रि के समय श्मशान में निशंक होकर आत्म-ध्यान लगाया करते थे।
विद्य त नाम के चोर ने राजमहल से महारानी चेलना का रत्नमयो हार चुरा लिया। कोतवाल ने भांप लिया, चोर जान बचाने को इमशान की तरफ भागा, कोतवाल ने पीछा किया तो हार को फेंककर वह एक वृक्ष की ओट में छुप गया । जिस जगह हार गिरा था उसके पास वारिषेण आत्म-ध्यान में लीन थे । इनको ही चोर समझकर कोतवाल ने हार समेत इनको राजा घोपिक के दरबार में पेश किया। राजा को विश्वास न था कि बारिषेण जैसा धर्मात्मा अपनी माता का हार गये, परन्तु चोरी का माल और चोर दोनों की मौजदगी तथा कोतवाल की शहादत । यदि छोड़ा तो जनता कह देगी कि पुत्र के मोह. में आकर इन्साफ का खून कर दिया, इसलिए उसने उसको प्राण दण्ड की सजा
- चाण्डात्त हैरान था कि यह क्या? वह वारिषेण को करल करने के लिए बार-बार तलवार उठाये परन्तु उसका हाथ न चले । थर्मफल के प्रभाव से बनदेव ने चाण्डाल का हाथ कील दिया था। सारे राजगृह में शोर मच गया। राजा श्रेणिक भी ना गये और उसको राजमहल में चलने
गर-बार तलवार उठाये परन्तु उसका हाथ न स । वर्मफल में