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भाषा चच्चरीकी
घन्य अाज जन्म मोहि दरसै जिनराज तोहि। तीन लोकनाथ देव सर्व ज्ञानके धनी ।। प्रणम्यौं जिन ब्रह्मचारि मानुष पद निहार । दयासिन्ध मोहादिक कर्मशत्रु को हनी ।। नौ शान्तरूप ध प तानासनी । विदः वीर मुक्ति नार बल्लभ मन रंजनी॥ जै जै जिन जगत बन्द काटत भ्रम जाल फंद। आपदा निवार सर्व दोष दुःख दाहनी ॥४९।। तुमरी सर्वज्ञ देव सुर नर मुनि करत सेव । नाशक अब जाल जन्म मरण सिन्धु उद्धरी॥ तुम गुण जो नाम लेत. चितको ढहाय देत। अन्तरमति शुद्ध होत रोग शोक को हरी॥ तुमरी थुति करें जेह ज्ञान को प्रकाश तेह। वचन को बिलास पाय तत्व अर्थ सोहनी॥ जै जै जिन जगत वंद काटत भवजाल फन्द । आपदा निवार सर्व दोष दुःख दाहिनी ।।५०॥
मोह निद्रामें एकदम वेसुध होकर पड़ा था, परन्तु आज अापके वचनरूपी बाजे के गम्भीर नाद से जागृत यानी सजग हो गया । आपके अनुग्रहवश कितने ही भव्यजीव सर्वार्थ सिद्धि स्वर्ग एवं मोक्ष को प्राप्त होंगे । आपके इस अमृत उपदेशको सुनकर देव, मनुष्य एवं पशु-सभी कर्म समूह को एकदम नष्ट कर देने के लिए तुल गये हैं और प्रापके विहार के कारण प्राय खण्ड निवासी ज्ञानवान् भव्यजीव भी सम्पूर्ण तान्त्रिक रहस्यों को जानकर पाप कार्यों के नाश में प्रवृत्त होंगे।
'महिमन' (महामान्य) की पवित्र यादगार है। इस प्रकार भगवान् महावीर का बिहार और धर्म-प्रचार न केवल भारत बल्कि समस्त संसार में हुआ ।
महाराजा श्रेणिक पर वीर-प्रभाव
Mahavira visited Rajgrih, Where He was most cordially welcomed. King Srenak Bimbisara himself came and paid the highest respect to Him and everafter remained a great patron of Jainism.
-Mr. U.S. TankB VOA. Vol. II, P. 68. विपुलाचल पर्वत को एकदम दुलहन के समान सजा, सूखे वृक्षों को हरा-भरा तथा जलहीन बावड़ियों को ठण्डे और मीठे जल से भरा तु न होने पर भी छहों ऋतु के हर प्रकार के फूल से समस्ल वृक्षों को लदा हुआ देखकर वहां का बनबाली दंग रह गया कि क्या मैं स्वप्न देख रहा हूँ या कोई जादू हो गया? वह थोड़ी दूर आगे बढ़ा तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। हर प्रकार के वैर भाव को छोड़कर बिल्ली चूहे के साय और नेवला सर्प के साथ आपस में प्रेम-व्यवहार कर रहे हैं । हिरण का बच्चा सिंहनी के थनों को माता के समान चूस रहा है, कोर और बकरा प्रेम-भाव से एक घाट पर पानी पी रहे हैं। रंगधिरगे फूल खिले हुए हैं. सर्वत्र आनन्द ही आनन्द छा रहा है । बनमाली जरा आगे बढ़ा तो भगवान महावीर के जय जयकार के शब्दों से पर्वत गुजजा सुनाई पड़ा। एक ऊंचे महासुन्दर रत्नमयी सोने के सिंहासन पर भगवान महावीर विराजमान हैं। रवर्ग के इन्द्र चंवर डोल रहे हैं, हीरे-जवाहरातों से सुशोभित तीन रनमयी सोने के छत्र मस्तक पर झूम रहे हैं। आकाश से कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा हो रही है, देवी-देवता बड़े उत्साह से और भक्ति से भगवान की वन्दना और स्तुलि कर रहे हैं। अब बनमाली समझ गया कि यह सब भगवान महावीर के शुभागमन का प्रताप है, जिनको नमस्कार करने के लिए समस्त वृक्ष फल-फूलों से झुक रहे है । बनमाली ने स्वयं भगवान महावीर को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया और यह शुभ समाचार महाराज श्रेणिक को सुनाने के लिए, हर प्रकार के फल-फूलों की डाली सजाकर वह उनके दरबार की ओर चल दिया।
महाराजा श्रेणि क बिम्बसार सोने के ऊंचे सिंहासन पर विराजमान थे कि द्वारपाल ने खबर दी कि बनमाली आपसे मिलने की आज्ञा चाहता है। महाराजा की स्वीकृति पर बनमाली ने नमस्कार करते हुए उनको डाली भेंट की तो बिना ऋतु के फल-फूल देख राजा ने आश्चर्य से पूछा कि यह तुम कहां से लाए ? तो बनमाली बोला-"राजन् ! आज विपुलाचल पर्वत पर भ० महावीर पधारे हैं"। यह समाचार सुनकर महाराज श्रीरिएक बहुत प्रसन्न हुए और तुरन्त राजसिंहासन छोड़, जिस दिशा में भगवान महावीर का समवशरण था उसी ओर सात कदम आगे बढ़कर उन्होंने सात बार भगवान महावीर को नमस्कार किया, अपने सारे वस्त्र और बाभूषण जो उस समय पहिने हुए थे, बनमाली को इनाम में दे दिये