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चौपाई
क्षघा तषा पून राग जु दोष, जन्म जरा अरु मरणहि तोष । रोग सोग भय विस्मय जान, निद्रा खेद स्वेद महबान ।।३६।। मोह अरति चिता अधिकेह, द्वेष अठारह जानों येह । इनते रहित निरंजन देव, नर सुर असुर कर सब सेव ॥३७॥ विहरे देश ग्राम पुर खेट, कर धर्म उपदेश हि हेट । मिथ्याज्ञान कुरमारग अंध, बचन किरण लख जगत प्रबन्ध ॥३८॥ ररनत्रय तप धार सोय, शिबमारग पाव भ्रम खोय। जिनवच सुधा पिये जो लोय, फेर न जग में आउन होय ॥३९।।
राजगृही के विपुलाचल पर समवशरण का आगमन मगधदेश' राजग्रह सार, विपूलाचल पुर निकट पहार । चार संघ मुर चतुर निकाय, आये सभा सहित जिनराय ॥४०॥ षट ऋतके भल फल स भये, वनपालक लख अपरज ठये। भई भेंट आयी मृप पास, श्रेणिक भूप सभा परगास ॥४१॥ घर फलफूल प्रणाम कराय, अर विरंतत कह्यौ समझाय । विपुलाचल पर बहु सुर भीर, समोशरण पायो जिन बीर ॥४२॥
रूपी पूर्ण चन्द्रमाका उदय हुआ तब उल्लासके कारण धर्मरूपी समुद्र वढ़ गया। इस धर्म-सागर में सम्यग्दर्शनादि महारत्न भरे हए हैं और यत्नशील बुद्धिमान पुरुषों को प्राप्त होते हैं । हे भगवान्, आज अापके धर्मोपदेश रूपी अस्त्रसे सम्पूर्ण जीवोंको सन्ताप देकर दुःखी करनेवाला भव्योंका पापरूपी महाशत्रु नष्ट हो गया। कितने ही भव्य प्रापसे दर्शन एवं चारित्र इत्यादि परमोत्तम सम्पत्तियों को पाकर अक्षय सखकी प्राप्तिके लिए उत्तम-मार्ग पर अग्रसर हो रहें हैं, कितने ही प्रापसे रत्नत्रय एवं तप रूपो बाणों को पाकर चिर कालानुबन्धी कर्मशत्रुको मारने के लिए सन्नद्ध हैं और मोक्ष प्राप्ति की अत्यन्त उत्कट कामनासे उग्र प्रयत्न
१. वीर-विहार और धर्म-प्रचार "भ. महावीर का यह विहार काल ही उनका तीर्थ प्रवचन काल है जिसके कारण वह तीर्थंकर कहलाये"।
-श्री स्वामी सन्मतभद्राचार्य : स्वयंभूस्तोत्र मगपदेश की राजधानी राजग्रह में भगवान् महावीर का समवशरण कई बार आया, जहां के महाराज थेणिक बिम्बसार ने बड़े उत्साह से भक्तिपूर्वक उनका स्वागत किया । महाशतक और विजय आदि अनेकों ने श्रावक प्रत लिये, अभयकुमार और इसके मित्र आदिक (Idrika ने जो ईरान के राजकूमार थे, भगवान् महावीर के उपदेश से प्रभावित होकर जैन मुनि हो गये थे। लगभग ५०० यवन भी वीर प्रेमी हो गये थे। फणिक (Phoenecia) देश के वाणिक नाम के सेठ ने तो जैन मुनि होकर उसी जन्म से मोक्ष प्राप्त किया।
विवेहवेश राजगृह से भ. महावीर का समवशरण वैशाली आवा, जहाँ के महाराजा चेतक उनके उपदेश से प्रभावित होकर सारा राज-पाट त्यागकर जैन साधु हो गये थे और इनके सेनापति सिहभद्र ने थावक प्रत ग्रहण किये थे ।
वाणिज्यग्राम में जो वैशाली के निकट या भ० महावीर का समवशरण आया तो वहां के सेठ आनन्द और इनकी स्त्री शिवानन्दा आदि ने उनसे थावक के व्रत लिये थे।
अंगदेश की राजधानी चम्पापुरी (भागलपुर) में भमहावीर का समवमारण आया तो वहां के राजा कुणिक ने बड़ा उत्साह मनाया। वहाँ के कामदेब नाम के नगरसेठ ने उनसे श्राधव के १२ प्रत लिये । सेठ सुदर्शन भी जैनी थे, रानी के शील का झूठा दोष लगाने पर राजा ने उनको शली का हकम दे दिया तो सेठ सुदर्शन के ब्रह्मचर्य व्रत के फल से खूनी सिंहासन बन गई, जिससे प्रभावित होकर राजा जैन मनि हो गये।
पोलासपुर में बीर समवशरण जाया तो वहीं के राजा विजयसेन ने भ० महावीर का वड़ा स्वागत किया। राजकुमार ऐवन्त तो उनके उपदेश से प्रभावित होकर जैन साधु हो गए थे, और शब्दालपुत्र नाम के कुम्हार ने श्रावक के व्रत लिये।
कौशलवेश की राजधानी श्रावस्ती (जिले गोंडे का सहट-महट) में वीर समवशरण पहुंचा तो वहां के राजा प्रसेनजित (अग्निदत्त) ने भक्तिपूर्वक भगवान का अभिनन्दन किया । लोग भाग्य भरोसे रहने के कारण साहस को खो बठे थे, भ. महावीर के दिब्योपदेश से उनका प्रज्ञान रूपी अन्धकार जाता रहा और वे धर्म पुरुषार्थी बन गये ।