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दोहा जती धर्म संक्षेपत, भाप्यो इहि प्रस्थान । पूरण भाष्यी जो कथन, तातें बढ़त पुरान ।। १८३।।
अथ षट्काल वर्णन अब रचना षटकाल को, सुनो सयाने लोय । जो भाष्यो प्रभु व्यासत, प्रगट सुनाऊँ सोय ।।१४।।
चौपाई
भरतखंड ऐरावत माहि, छहौं काल बरते जु सदाहि । उत्सपिणी अवसर्पिणी पाय, रहंट घड़ो वत पावे जाय ॥१८५।। भातकाल उत्सपिणी जान, कोड़ाकोड़ि दशाब्धि प्रमान । छठवे ते पहले लग जाय, बड़े रूप तन बल सुख माय ।।१८६।। वर्तमान अवपिणी काल, ताकी भेद सुनौ कछु हाल । सो सागर दश कोड़ाकोड़ि, छहों काल कर मंडित जोडि ॥१७॥
मखमा प्रथम विचार, कोड़ाकोड़ी सागर चार । ताकी प्रादि पल्प त्रय प्राव, तीन कोश तन तग लखाय ||१८||
विदि .१, बबरीमालधरा दिव्य अहार । सो भी लेय तीसरे दिना, मल निहार वजित तसू गिना ||१|| मदा सर्य प्राभूषन जान, दाहन ज्योति दीप ग्रह मान । भोजन भाजन वस्त्र प्रमान, ये दश कल्पवृक्ष परधान ।।१६।। को कल्पना मन में जिसी, भोग संपदा पुरवं तिसी । ते सब सुख्य वरण को कहै, ग्रन्थ बड़े अरु पार न लहै ॥१०१।। उत्तम पात्र दान जो देइ, उत्तम भोगभूमि पद लेट् । विकल त्रय नहि उपजै तहीं, पंचेन्द्रीय असंनी नहीं ॥१
नवग्रह तिरंजच ज सोय, आर्जव भाव सदा अबलोय । तह ते मर सुर लोकहिं जाय, और न दूजी गतिहि लहाय ॥१६३।। मध्यम सुखमा दुतिय प्रवीन, सागर कोड़ाकोड़ी तीन । आदि पल्य द्वय जीबन जाय, देह तुग दो कोश सुभाय ॥१४॥ पर्णचन्द्र किरण जुत जिसी, तन सो है अति निर्मल तिसौ । धात्री फलबत दिव्य प्रहार, तृप्ति हेतु दुजैदिन धार १ मध्यम पात्र दान जे गहैं, मध्य भोगभूमि सो लहैं । पूरब कथित सुख्य तह पाय, फिर सो स्वर्ग लोक को जाय ।।१६६।। ततीय काल लघु सुख्यासुख्य, कोडाकोडि सिवु द्वय तुख्य । आदि पल्य इक प्रायु प्रवान, देह कोश इक उन्नत जान ॥१९॥ एक दिन बीते लेय अहार, तृप्ति जुहेत आम उनहार । तन मुवर्ण सम दोसे सोइ, भोगभूमि यह अन्तिम जोइ ॥१६॥ दश विधि कल्पवृक्ष सुखदाय, पूरबवत सब शोभा थाय । पात्र जघन्यहि देहि जु दान, लहै जघन्य भोग भू थान ||१६|
सो कोई दसरा भव्यजीवों के लिए न भाई है न स्वामी, न हितैषी है न पाप नाशक, सर्वतोभावेन सभीका कल्याण करने वाला यह धर्म हो है । इसके बाद प्रभुने कहा कि इस मार्यावर्त भरत क्षेत्र (भारत वर्ष) में उत्सपिणी एवं अवसपिणी नामक दो प्रकार काल कहे गये हैं। ऐरावत क्षेत्र में भी ऐसी ही व्यवस्था है। उत्सपिणी नामके कालमें रूप, बल ; प्राय देह एवं सूखकी मदेव वद्धि हना करती है शब्द के वास्तविक अर्थ से भी तो यही प्रकट होता है। यह उत्सर्पक काल बढ़ाने वाला है और यह दस कोडाकोडी सागरका होता है । तथा अवसपिणी काल में रूप, वल एवं आयु इत्यादि का नाश होता है इसलिये सम्भवत: इसका पर्याय नाम अवसपिणी रखा गया है। इनके पृथक-पृथक् छ: भेद हैं । अवसर्पिणीका पहला काल सुषमा है, और वह चार कोड़ाकोडी सागरका है । इस कालकी प्रारम्भावस्थामें ही प्रायं पुरुषों का उदय हुआ। वे सूर्य के समान परम तेजस्वी एवं स्वर्णके समान वर्ण वाले होते हैं । इनकी आयु तीन पल्य की एवं शरीर को ऊंचाई तीन कोसकी होती है। जब तीन दिन बीत जाते है तब उनका अलौकिक आहार बदलीफल (बेर) के बराबर हो जाता है । उन्हें नीहार यानी मलमूत्रको बाधा एकदम नहीं होती। उस समय इनकी आवश्यकताओं की पूर्ती दस प्रकारके कल्पवृक्षोंके द्वारा हुमा करती है। मर्याग, तूर्याङ्ग, विभुषांग, मालांग, ज्योतिरांग, दोपांग, गहांग, भोजनांग, वस्त्रांग, एवं भांजनांग ये कल्प वृक्षकी दस जातियां होती हैं। ये सब वृक्ष उत्तम पायदानके प्रभाव एवं फलसे पुण्य-परायण पुरुषोंकी पान्तरिक तथा बाह्य अभिलाषाओंको सदैव पूर्ण करने के लिए कटिबद्ध रहते हैं और सुख-संपदाओं को प्रदान कर पानन्दित रखते हैं। श्रेष्ठ जीवन पुरुष एवं स्त्री के रूपमें युगल' (जोडा) उत्पन्न होकर चिरकाल पर्यन्त सुख भोगों को भोगकर उत्तम परिणाम के प्रभाव से सभी स्वर्ग जन्म ग्रहण करते हैं। इसी कालकी भूमिका नामकी भोग भूमि जो सम्पूर्ण