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फेर प्रजुध्या नगर बनाय, सो सुर उन जीवन तह ल्याय । मृतिका हार करें तन पोष, रहैं जु सुख सौं धर संतोष ॥३३२॥ उत्सपिणि फिर उपज प्राय, वद्धि रूप क्रम क्रम चढ़ि जाय । जिहि प्रकार षट कालहि जान, तिहि समान बढ़ती उन्मान ।।३३३।।
दोहा इहि विधि जिन मुख कमल बच, ज्ञाम पियूष हि पीय । बम्यौ मोह मिथ्यात विष, गौतम विष सुघीय ॥३३४।। काललब्धि को निकट लहि, भाव संवेग बढ़ाय । विश्व भोग तज लक्ष्मी, भयौ विरक्त सुभाय 11३३५॥
चौपाई यह मिथ्या मारग दुखदाय, अशुभ पाप उपजाय प्राय । मैं सेयौ सुवथा चिरकाल, मूढ़ चित्त निदत जग जाल ॥३३६।। जथा अन्ध नर का हि पर, तहां बिकल नाना दुख धरै । त्यौं मिथ्यात अन्ध जग जीव, नरक कप में गिरे अतीव ॥३३७॥ समकित व्रत चित धर्म हि गहै, तो शिवपंथ सुगम कर लहै । जो अहि खाइ तो इक भव जाय, पे मिथ्या भव भव दुखदाय ।।३३८।। गो सिंग हि में दूध जु कई, जल विलोइ तो नंनू बढ़े । मिथ्या कर तो भी सुख नाहि, धर्मलाभ क्यों हू है ताहि ॥३३९।। मेरी सफल जन्म है आज, पुण्य धन्य पाये जिनराज । कह्यौ धर्म मारग सुख भास, मिथ्यातम वच किरण प्रकास ||३४०11 त्यादिक चिता अधिकाइ, परमानंद बढ्यो बहु भाइ । धर्म अधर्म फलाफल जान, भयो गाढ़ वैराग्य प्रवान ।।३४१॥ या आरत ममता देह, इनको नाश कियौ तज नेह । परम दिगम्बर दीक्षा धरी, मन वच काय शुद्धि प्रादरी ॥३४२।।
भात दिगम्बर भये, शिष्य पंचसै जुत मुनि ठये । तज्यो संग चौबीस प्रकार, जिनमुद्राबारी अविकार ।।३४३।। और भव्य बह संजम लयौ, मोह संग छिन में तज दयी । सुन नारी मन बिरकित होइ, गृह तज भई अजिका सोइ ॥३४४॥ ने प्रावक व्रत लिए, सत्य दया निज उरपे ठए । सुनि श्री जिसमुख अनृतानि, नरनारो निज निज व्रतठानि ॥३४५।
नायी देवनि गर्न, मानुष पशु मिथ्या हि भने । ते जिनवानो सुनकै डर, दयाभाव सवहो प्रति करे ।।३४६।।
वार भक्ति उर लाइ, पूजा दान भाव अधिकाइ । कोई तप जप लेइ अपार, कठिन कर्मनाशक निरधार ॥३४७॥ मातम गणराज प्रधान, प्रथम इन्द्र नमि शिर धर पान । द्रव्य द्रव्य जुत पूजा करो, भक्ति सहित प्रस्तुति विस्तरी ॥३४॥ नजरिन श्री गौतम गणराइ, सप्त ऋद्धि उपजा तह प्राइ। पूरब पुण्य प्रगट जहं भयो, सुद्ध प्रमाणो शुभ पद लयो ।
दोहा देखो वे जग में शुद्ध मन, इष्ट संपदा होत । उपज प्राधे शिक्षनक में, केवल ज्ञान उदोत ।।३५०।।
चौपाई
जया प्रमरगण में सुरराय, त्यो गणधरमें गौतम थाय । मन विचार सीधर्म सुरेश इन्द्रभूति कहि नाम महेश ॥३५१।। श्रावन दतिया पहली पक्ष, शुद्ध जागशुभ लगन प्रतक्ष । पूर्वाह्निक बेरा तह प्राय, तज पारगह गनधर पद पाय ।।३५२।।
पीकर अपने मिथ्यात्व रूपी हलाहलको दूर कर दिया और मोक्ष प्राप्तिके लिये सौभाग्यवश प्राप्त सम्यकदर्शन रूपो बहुमूल्य रामदारको अपने हदयमें सीख्य पूर्वक धारण किया। जो कोई अतादिके पालन में असमर्थ थे, बेयात्म कल्याणका भावनास दान पूजा और प्रतिष्ठा इत्यादि का आचरण करने लगे। जिन लोगों ने भक्तिवश तप अोर व्रत इत्यादिका ग्रहण कर लिया और अन्त में प्रातपनादि कठिन कार्यों को नहीं कर सके वे मन बचन और कार्यको शुद्धि में प्रवृत्त होकर कर्मरूपो शत्रुमांक नाश कायम प्रबल हो गये। इसके बाद सौधर्मेन्द्रने भक्ति पूर्वक गणधरदेव गौतमको अलौकिक पूजनोय द्रव्योंसे पूजित कर उनके सन्दर चरणारविन्द को नमस्कार किया और स्तुतिमें उनके गुण गौरवका गान करते हुए सम्पूर्ण उपस्थित सज्जन पुरुषों के सामने हो मापका नाम इन्द्रभूति स्वामी ऐसा घोषित हुआ और तभीसे यह दूसरा नाम भी प्रचलित हुमा ।
१. श्री गौतम नरिव प्रागे पढ़िये