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चोवीस कामदेवों का परिचय
अब चोवीस मदन द्युति धाम, आगम उक्त कहीं जिन नाम बाहूबल प्रथमहि जिन पुत्त, दूर्जे श्रमिततेज गुन जुत्त ॥ ३०६ ॥ श्रीधर उपजे तीजे काम, बरु दशभद्र चतुर्थ ठाम प्रसेनचन्द्र पंचम वन मूल, चन्द्रवरण छट्ठे सम सूख ॥३१०॥ कनकप्रभ दशमैं जग भये ॥ ३११॥ अग्निमुक्त सातम गुणधार, ग्राम कहिये सनत्कुमार। वत्सराज नवमैं वरनये, मेघवर्ण एकादश मेश, द्वादश में श्री शान्ति जिनेश । कुन्थुनाथ तेरम पद जान, अर जिन चौदह में परवान ||३१२॥ विजयराज पन्द्रम अवतार श्रीचन्द्र षोडश में धार नलराजा सत्रम गुणखान अद्यारम हनुमन्त सुजान ॥ ३१३१ | राजा उनवीसम हये वसुदेव वीसम स्मर भये इकवीस में दम सु होइ, नागकुमार बाइसम सोइ ॥ ३४॥ aaten घोपालकुमार जम्बूस्वामि अंतपद धार एक सय कामदेव धरनये, देव भये केई विच गये ।।३१५॥ तेवीसम
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दोहा
ये सब पदवीधर पुरुष चतुरथ काल मने। नरपति खगपति सुर असुर, चरन नमित परवेद ।। ३१६॥ पृथक पृथक तिन गुमके, भावे सकल पुरान श्री जिन गौतम पति कहीं भूत भविष्यत मान ।।२१७।।
चौपाई
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इहजार पर परवान जिनवर धर्म जहां लग जान ||३१८|| सात हाथ उत्तंग जु देह, रूखो प्रतिमुख वर्जित तेह ||३१|| कलकी यह उपकलकी लहे, पंचर्स वर बीच बुध यहै ।। ३२० ।।
अब घुमा पंचम काल, दुख पूरित नर देखी हाल ताके आदि मनुषकी प्राव, विंशोत्तर इकसय वरपाव मन्दमती कुटिला सोइ दिन प्रति बहु दुख भोजन होइ होंहि कुलिंगी मेप अनेक, अरु पाखड प्रगट कर टेक है सूर्य मिथ्यात्व अपार सोई कुगति पंच पग धार ।।३२१॥ विरलै भवि श्रावक व्रत धार, आर्जव परिणामी सुविचार जाय विदेह केवली होय, के सुरलोक लहैं सुख सोय ।। ३२२ ॥ दुषमादुपमा छट्ठम काल, सो इकवीस सहस दुख जाल । धर्म विवजित द्वे कर देह धूम्रवरण द्युति है विन गेह ।। ३२३ ॥
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जीवन बीस बरसको आदि, नगन सदा बस्तर वे वादि । स्वेच्छ प्रहार पत्र फल खाइ, गिरिकंदर पशुवत जुरहाई || ३२४|| काल मन्त्र इक हाथ शरीर षोडसदर धावत वीर मरकै दुर्गति सर्व लहाहि मत जिन किया न जाने काहि ॥ ३२५॥ ठाकुर दास न कोई होइ, श्रगिन प्रजालन भेद न सोइ । माता त्रिया बहिन सब खेद ज्ञान बिना जानें नहि भेद || ३२६ ॥ काल अंत सुरपति मन जान, प्रलय होय अव आरज धान । प्राज्ञा दई नियोगो देव, कछु जीवन की रक्षा लेव ॥ ३२७॥ सोहत ये न कीनी वेर, इक इक जाति जीव सब ठेर । जुगल बहत्तर लेलं जोइ राखें निकट विज्यारथ सोइ ||३२८॥ पृथिवी अग्नि पवन जल जोर, इत्यादिक वर घनघोर । लवणसमुद्र प्रजाद हि छोर, प्रगटो बहु जल श्रारज योर ।। ३२६ ॥ दिन उनचास भयो उत्पात, सारज खंड सकल जिय पात सो जल निधी उदधि समाय चित्राभूमि रही टहरा ||३३०|| 'फेर शरकरा स्वाद समान, वरष मृतिका तिहि प्रस्थान | इहि विधि सर्पिणि काल प्रमान सो संक्षेपहि कही वखान ||३३१॥
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जिनेन्द्रको दिगम्बर (नग्न) मुद्रा धारण कर ली यादवांनी शिष्योंको उन्होंने तत्व स्वरूपका उपदेश दिया जिसे सुनकर बहुतों के हृदयका अन्धकार दूर हो गया और पूर्वक्ति दोनों प्रकारके परिग्रहों का परित्याग कर मुनि चरित्रको ग्रहण कर लिया । साथ ही वहां पर उपस्थित राज कन्याएं और धन्य सुशील विषयां भी उपदेशको सुनकर प्रभावित हुई और अभीष्ट सिद्धिके लिये प्रसन्नता पूर्वक उसी समय अर्जिकाएं हो गयी। कितने ही शुभ परिणामी नर-नारियोंने श्री जिनेन्द्रदेव के उपदेश के अनुसार श्रावक के व्रतोंको ग्रहण कर लिया। सिंह सांप इत्यादि हिंसक पशुओंोंने भी उस श्रमृत उपदेश के प्रभाव से अपने-अपने हिंसक स्वभावको छोड़कर थावकों के व्रतोंको स्वीकार कर लिया। चारों जातिके देव धौर देवियां तथा मनुष्य एवं पशुमने प्रभुके वचनामृतको
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