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चौपाई
जो कोई यह बिकलप कहै, तीजै काल मोख किम लहै। हुंडासपिणी दोष अतीव, प्रेशर पद अठावन जीव ॥२२७।। प्रथम प्रादि जिन तीज काल, पहुंचे मोख पंथ यह हाल । शांति कुन्थु पर नाथ भनेह, तीर्थकर चक्रीपद येह ॥२२॥ प्रथम विपष्ट नरायन भये, वर्धमान अन्तिम जिन ठये । भरतचक्र थापो द्विज वरण, ते अनेक पाप हि उद्धरण ।।२२६॥ अरु पांचौं मिथ्यात्व जु भये, मानभंग पुन चक्री लये। तीर्थकर उपज्यौ उपसर्ग, भयो मूर्ति मिथ्याति हि वर्ग ।।२३०।। गरु प्रति कहै शिष्य फिर तब, हुंडासपिणि उपजे कयं । सपिणी पौ उत्सपिणी काल, जाय जबै सो पर अड़ताल ॥२३१।। डण्डा सपिणि जब ही होइ, ऐते दोष प्रगट कहि सोइ । तितन हुंड बीत जब जाय, विरह काल तब उपज प्राय ॥२३२॥
दोहा
पट महिना परजंत ली, मोख पन्थ नहि लाय । पाठ समय बाको रहैं, जिनमें ते दिशच जायला अब जिन जननी तातके, लिखौं नाम समुदाय । जनम पुरी को बरनऊ, त्रय कल्यानक थाय ।।२३४।।
तीर्थकरों के माता पिता तथा जन्मनगरी के नाम
चौपाई
नाभिराय प्रथमहि जिन तात, मरुदेवी माता विख्यात । नगर अजुन्या बनदहि रची. नव बारह जोजन कर खची ।।२३।। जितशत्रहिं दर्ज जिन पिता, विजयादेवा माता जुतः । अबधिपुर) अति वनी मनोग, रची कुबेर जन्म संयोग ॥२३६।। नप जितारि तीज प्रभु तात, रोनादेवी कहिये मात । सावित्री नगरी अति भली, नय कल्याणक यामा रली ॥२३॥ संवर नाम राय गुनधाम, चतुरथ जिनके पिता विराम । सिद्धारथ देवी है माय, नगर अजुध्या जन्म लहाय ।।२३८।। मघप्रभ जिन पंचम तात, सती मंगलादेव। मात । नगरी जनम अवधि पुर सोइ, देवन रचो महामद खाइ ।।२३६।। धारन नाम पिता को जान, देवि सुसीमा मात बखान । कौशांबी पुर नगरी सोइ, छट्टम जिनवर जन्म सु होइ ॥२४०॥ मप्रतिष्ठ नामा नप तात, पृथियो देवो जानो मात । नगर बनारस जन्म जु भयो, सातम जिनपद सुरपति नयौ ।।२४१॥ महासेन ग्राम जिन पिता, नाम सुलक्ष्मीदेवी जता । सो प्रभ की इमि जानौ मात, चंद्रपूरो में जन्म विख्यात ॥२४॥
वाले होते हैं और कुटिल परिणाम वाले होते हैं। इनका शरीर, आयु बुद्धि एवं वल इत्यादि दिनों दिन न्यून होता चला जाता है। तब दःखमा २ नागका काल प्रारम्भ होता है इसका प्रमाण भी इनकीरा हजार वर्षका ही है। यह धर्म इत्यादिये हीन अत्यन्त घोर दखॉकी देने वाला है। उस समय मनुग्य केवल दो हाथ ऊंचे और बोस वर्षको अवस्था वाले होते हैं। उनका वर्ण धुंए के समान काला एव देखने में महाकुरूप होता है प्रायः नग्नावस्था में ही ये रहते हैं पोर इच्छानुसार भोजन किया करते हैं जब इस दःखमा-दःखमा का अन्तिम काल आ जाता है नव इन मनुप्योको उचाई एक हाथ की रह जाता है और पशुओंके समान वृत्ति वाले होकर इधर-उधर फिरा करते हैं । इनकी यायु अधिक से अधिक १६ वर्षकी होती है। ये सब अत्यन्त निंदनीय होते हैं और वरी जातिको प्राप्त करते हैं। जिस तरह कि अवपिणो काल क्रमश: धोरे धोरे होन होता जाता है, उसी तरह दूसरा उत्सपिणी काल उत्तरोत्तर बढ़ने वाला है । इतना कह चुकाने के बाद थी जिनेन्द्र महावीर प्रभु ने लोक का वर्णन करना प्रारम्भ किया।
इस लोकका अधस्तल (निचला भाग) बैतके आसन मोढ़े के समान हैं बीच में झालरसा लगा हना है, और कारी भाग में मृदङ्गके आकारका बना हुआ है । इसी में जीव इत्यादि छ: द्रव्य भरे पड़े हुए है । इसके साथ ही प्रभु ने द्वीप इत्यादिका विशेष आकार तथा स्वर्ग और नरकका भी वर्णन कर चकने के बाद कहा कि सोनों लोकमें जो भी कुछ भूत, भविष्यत पोर वर्तमान काल में होने वाले शुभ अशुभ पदार्थ हैं । तथा इनसे पृथक जो पालोकाकाश है वे सभी केवल ज्ञान के ही द्वारा वास्तविक रूपमें जाने जा सकते हैं। जिनेन्द्र महावीर प्रभु ने भव्य जीवों की भलाई के लिये तथा धर्म और नीर्थ को प्रवति के लिये द्वादशांग