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दोहा
ततीय काल के अन्त में, रह्यो पल्य बसु भाग । चौदह कुल कर ऊपज कह्यौ नाम बड़भाग ।।२००|| प्रथमहि कुलत अन्तरी, दश दश भाहि होन । पल्य भाग इमिगत भये, अनुक्रम सौं गन लोन ।।२०।।
चौपाई प्रतिशत कुलकर प्रथमहि जान, रानी स्वयं प्रभा गुन खान । ज्योति रंग दुम मंद मह लयौ, चन्द्र सूर्य तब परगट भयो ।२०२।। सन्मति मनुज जसरवी नार, ज्योति रंग तय नाहि धार । दिन निश नखत तारजुत देख, प्रजा बोध कोनो तिनि पेख ॥२०३।। क्षेमंकर हि सुनंदा त्रिया, देखहु सिंह मृगहि बध किया । क्षेमंकर विमला बर लियौ, जष्टि ग्रहन उपदे सीमकर मनोहरी दार, मन्द कल्पतरु करहि निवार । नाम सीमधर धारन तपी, ग्रह उत्पति उपदेश्यौ प्रती ।।२०५॥ विमलबाह त्रिय सुमति विधार, अंकुश प्रायुध गज असघार । चक्षु मान त्रिय धारणि ऐन, तब निज निज सुत देखै नैन ।।२०६।। मनुज यशस्वी अमरा प्रिया, तब प्रसूत जात क्रम किया । मनु अभिचन्द्र थोमती कंत, पिता पुत्र क्रीडा करत ॥२०७।। चन्दाभ हि प्रभावती जन्म, पुत्र विवाह करन उत्पन्न । पुन मरुदेव अनूपम जान, नदी नाव किय गिरि सोपान ॥२०॥ नप प्रसेन अनुजज्ञा जास, अम्रपटल अरु जरा प्रकाश । नाभिराय मरुदेवी जही, नाभि जरायू उपजी सही ।।२०६।। मेघष्टि घन गरज घोर, चमक बिजली अति चहुं ओर । विकलत्रय उतपति तह भई, सकल धान्य उपजन भूवि ठई॥२१॥
अडिल्ल
पल्यहि दशमैं भाग, प्रथम कुलकर थिती । दश लख कोडाकोड़ी, पूरब तिहि मिती ।। दश दश भागहि हीन, अबर क्रम लही। चौदश नाभि नरेन्द्र, पूर्व इक कोड़ ही ॥२११।।
__ दोहा मन शत पच्चीसहि धनुष, नाभिराय जी काय । पच्चीसहि सौं वृद्धि क्रम, तीजै लौ गन भाय ॥२१२।। दृर्ज कुलकर काय तह, चाप तेरस जान । प्रतिश्रुत प्रथम उतंग तन, धनु अठारस ठान ॥२१३।।
सखोंको देने वाली कही गयी है। वहां पर क्रुर स्वभाव वाले पंचद्री तथा दो इन्द्रियादि विकलत्रय नहीं होते । इसके सुखमा नाम
दसरे काल का पाराभ होता है। उसकी प्रायु तीन कोडाकोडी सागर को है। इस समय में मध्यम भोग भूमि की रचना होती है। और मनुष्यों को प्राय दो पल्यकी होती है । उनका शरीर दो कोस ऊना होता है एवं आकृति तथा वर्ण पूर्णचन्द्र के समान अाकर्षक होता है। ये लोग दो दिन के अन्तर से बहेड़े के फल के बराबर आत्म तृप्ति के लिये अनुपम आहार ग्रहण करते हैं इनकी सख सामग्री भी भोग-भूमि ऋलोके ही समान रहती है।
इन दोनों के याद नोरारे सुखमा नाम के समय का आरम्भ होता है। इसका प्रमाण दो कोड़ाकोड़ी सागर का है। इसमें जघन्य भोग भूमिकी रचना होनी है। मनुष्यका प्रायुप्य-काल एक पल्य, शरीरको ऊंचाई एककोस एवं प्राभा प्रियंगु वृक्षके सभान होती है। इन लोगोंका अहारकाल एक दिन के बाद है पीर प्रविले के बराबर माहार मात्रा का परिमाण है। इन्हें भी कल्ल वक्षासही विविध राख-सामग्रियां प्राप्त हुमा करती है। इसके अनन्तर दुःखम सुखमा काल प्रवृत्त होता है और कर्म भूमि प्रारम्भ होती है । इसमें शवाका अर्थात् पदवी धारण करने वाले पुरुषों को उत्पत्ति होती है । इसका प्रमाण व्यालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर का है। मनुष्यों का आयु प्रमाण एक करोड़ वर्ष पूर्व है। शरीर की ऊंचाई पांच सौ धनुप की है । तथा देहबणं पांच प्रकारका होता है। ये दिन में एक वार श्रेष्ठ भोजन को ग्रहण करते हैं तिरेसठ शलाका पृरुप ऐसे ही समयमें उत्पन्न होते हैं।
बैलोक्याधिपति एवं इन्द्र इत्यादि जिन चौबीस तीर्थकरों का नत मस्तक होकर नमस्कार किया करते हैं उनके नाम