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अथ जलगालन क्रिया सात लाख जल जानि जिय, अरु त्रस राशि अनेक । यात बुध जल गालिये, दयाभाव कर टेक ॥१५१।।
चौपाई दीरघ छत्तिस अंगुल जान, अर चौरौ चौबीस प्रमान । गाली वस्त्र दुगुन कर गाल, इहि विधि जीवदया प्रतिपाल ॥१५२।। धरी दोय जल गालिउ रहै, फिर असंख्य अस जिय तहं लहैं । यो जल गालि गालि व्योपर, विलछानो ले घट में धरै ।।१५।। सो निवान जल में ले कर, विधिसौं जाय बीच नहि गिर। एक बद जो धरती परै, जीव असंख्य राशि तह मर ।। १५४।। ताके भ्रमर होय उड़ि गर्म, जम्बूद्वीप मांहि नहि समैं । यात शुद्ध गालिये नीर, अनगाले अघ हैं बहु वीर ।।१५५।। प्रहर दोय प्रासुक जल रहै, आप्रहर तातो निर वहै। फिर राखें सन्मूछित जोइ, अरु गाले नै हिसा होई ।।१५६।। दिन गाल जल म्हा नहि करे, होइ पाप धर्महि परिहर। उत्तम विधि जल गाले सोइ, सो श्रावक किरिया अवलोइ ।।१५।।
मन्थउ (ब्याल) क्रिया वर्णन दोय घरी रवि उदय प्रमान, दोय घरी अंतिम दिन जान । इतने में भोजन जल ले इ. मथुन दिवस हि त्याग करेइ ।।१५८।। इहि विधि किरिया जे जन करै, सो स्रावक अंथउ नत धरै । अब रतनत्रय वहीं प्रमान, जथा जोग जिनशासन जान ॥१५॥
अथ अष्टांग सहित सम्यग्दर्शन का वर्णन
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दोहा
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निःशंकादिक जानिथे, दर्शन पाठौ अंग। ते रनौं संक्षेप कर, जानी बुध सरवंग ।।१६०॥
चौपाई तत्व पदारथ सदा विचार, जिनमुद धर्म कहै भवतार । शंका रहित गुननको गहै, निःशकादि कहावै बहै ॥१६॥ तपसा मांहि रहै लौं लाय, श्रीमुख बानी चित्त लगाय । सुरंग नरकको वांछा नाहि, निःकांक्षांग गुनौ मन माहि ॥१६॥ कर्म महावन दिये जराय, प्रगटी मति उत्तम सुखदाय । विचिकित्सा तनव्यापै नाहि, निरविचिकित्सा अग सुपाहि ।।१६३।। देव गुरू धर्महि चित गिने, ज्ञान चक्ष सौं निरखं तिनै । त्रिविध मुढ़कर रहित प्रवीन, यह अमद गन जायक लोन ॥१६४।।
बचन और कायकी शुद्धि कर लेते हैं ऐसे जीवोंको मुनीश्वरों ने जघन्य-श्रावक कहा है और ये श्रावक स्वर्ग में जाते हैं। जो कि स्त्री जाति मात्रको अपनी माता समझ कर ग्रहनिश ब्रह्म स्वरूप प्रात्मामें लीन हो रहते हैं वह सप्तम ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। पापभीरु पुरुषों के द्वारा अत्यन्त निन्दनीय और प्रशभ व्यापार गहण आदि का परित्याग कर देते हैं वह अत्यन्त उत्तम प्रारम्भ परित्याग नामको अष्टम प्रतिमा कही गयी है। जो वस्त्रों को छोड़कर अन्य सम्पूर्ण पाप कर्म को प्रारम्भ करने वाले परित्याग को त्याग मानसिक वाचनिक और कायिक शुद्धि-पूर्वक किया जाता है उसको परिग्रह परित्याग नामक नवमी प्रतिमा कही गयी है। जो विरक्त जीव इन नवों प्रतिमाओंका पालन किया करता है वह देव पूज्य श्रावक कहलाता है। जो कि गृहकार्य इत्यादि में अपने आहार में धनोपार्जन की मन्त्रणा गुप्ति से अपना मत नहीं प्रगट करते उसकी दसवीं अनुमति त्याग नामकी प्रतिमा है। जो दोष युक्त अन्नाहार को अभक्ष्य बस्तुनौकी तरह त्याग देते हैं और भिक्षाभोजन ही स्वीकार कर लेते हैं वह एकादश उद्दिष्ट त्याग नाम की प्रतिमा कही गयी है। इन उपर्य क्स ग्यारह प्रतिमानों को विविध उपायों द्वारा प्रतिदिन जो सेवन करते हैं वे त्रिलोकी के पूज्य और उस्कृष्ट पाबक कहे गये हैं और श्रावक के प्रतिमा रूप वाले धर्मों का सदेव ध्यान रखते हैं वे स्वयं के उत्तम सोलह सुखों को प्राप्त कर लेते हैं । इस प्रकार महाबीर प्रभ अनुगगी जीवों के हृदय में धावक धर्म के उपदेश के द्वारा महान हर्ष उत्पन्न करके विरक्त मुनियों की प्रसन्नता के लिए मुनि धर्मका उपदेश करने में प्रवृत्त हए।
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