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तीन ज्ञान तुम नैन सु यार, याहेय सकल वेत्तार । तुम शिक्षा दे समरथ नाहि, दीप तेज जुगनू द्यति जाहि ॥ १४ ॥
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तुम प्रभु तीन योग उर ल्याइ पोहारि दिन करा कोई प्रभु तुम अस्तुति पाय दुर्लभ धर्म जहाज चड़ाम कोई सुन धर्म हि उपदेश, रत्नत्रय उर घरं महेश तुम बच सूरज किरण प्रकाश, तम अशाम छिनक में नाश तुम अभीष्ट - सुख - सिद्ध कराय, अखिल-वृद्धि दायक जिनराय । जेनर मोह पंक गस रहे, तिनके हस्त कमल निज गहै तुमरे वचन महा गम्भीर भय वैराग्य वचसम और
सब निज पद की कीन्ही चाह, प्रनमो तीन जगत के नाह ||१५|| भववारिधि है अगम अथाह उत्तर व शिवपुर की राह ।। १६ ।। ता फल पावहि उत्तम थान, शुभ सरवारथसिद्धि महान ॥ १७ ॥ तिरको अर्थ बढ़ाय, दीसे शिव मारग सुखदाय ||१८|| हो प्रभु स्वर्ग मोक्ष के गेह, भविजन उर नाशन संदेह ॥ १६॥ धर्म ती वरतावनहार तुमको शिवदासी सम सार ||२०|| मोह महा पर्वत सम दण्ड तितकी नूर करे खण्ड ॥ २१ ॥
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उस देव ने प्रभु को डराने के उद्देश्य से काले सर्प का आकार बनाया। वह एक वृक्ष की जड़ से लेकर स्वन्ध तक लिपट गया। उस सर्प के भय से अन्यान्य राजकुमार वृक्ष से कूद कर घबराये हुए दूर भाग गये ।
पर महावीर कुमार जरा भी भयभीत नहीं हुए। वे विकराल सर्प के ऊपर भारूड़ होकर कीड़ा करने लगे। मालूम होता है कि वे माता की गोद में कीड़ा कर रहे हों कुमार का ऐसा ये देखकर देव बड़ा चकित हुआ। वह प्रकट होकर प्रभुकी स्तुति करने लगा | उसने बड़े नम्र शब्दों में कहा — देव तुम्हीं संसार के स्वामी हो, तुम महा धीर वोर हो। तुम कर्मरूपी बैरियों के विनाशक तथा समग्र जीवों के रक्षक हो ।
यह कहने लगा-देव ! यागके अतुल पराक्रम से प्रकट हुई कीति स्वच्छ बांदनी के सदृद्ध लोक को नाड़ी में विस्तृत हो रही है। तुम्हारा नाम स्मरण करने मात्र से ही प्रयोजनों को सिद्ध करने वाला धैर्य प्राप्त होता है । अत्यन्त दिव्य मूति वाले सिद्ध वधू के मर्ता महावीर में पापको बारंबार नमस्कार करता हूं। इस प्रकार यह देव भगवान की स्तुति कर उनका महावीर नाम सार्थक करता हुआ स्वर्ग को चला गया। कुमार ने भी अपने यम को बड़े ध्यान से सुना देवको स्तुति बड़ी ही कर्णप्रिय तथा भगवान के यश को संसार में विस्तृत करने वाली थी ।
इस प्रकार भगवान महावीर स्वामी का गुणानुवाद बार-बार देव करता था ये भगवान किन्नरी देवियों द्वारा गाये गये अपने गुणानुवाद को बड़े ध्यान पूर्वक सुना करते थे कभी नेत्रों को करने वाले की राम्रों के नृत्य पौर विभिन्न प्रकार के नाटक देखते थे। वे किसी समय स्वर्ग से प्राप्त आभूषण, वस्त्र माला यादि दिखाकर प्रसन्न होते थे । अन्य देव कुमारों के साथ कभी जस कीड़ा और कभी अपनी इच्छा से वन कोड़ा करते थे। इस प्रकार कीड़ा में संलग्न धर्मात्मा कुमार का समय बड़े-सुख से व्यतीत होने लगा ।
सौधर्म स्वर्ग का इन्द्र भी अपनी कल्याण-कामना के लिये देवियों से अनेक प्रकार नृत्य गीत कराने लगा। काव्य आादि की गोष्ठी धीर धर्म-चर्चा से समय व्यतीत करते हुए कुमार ने संसार को सुखी करने वाली यौवनावस्था को प्राप्त किया। कुमार के मस्तक का मुकुट धर्मरूपी पर्वत को शिखर की भांति दीखने लगा था। इनके वादों और मस्तक की कारली ऐसी भी मालूम पड़ती थी मानो अष्टमी के चन्द्रमा को कान्ति हो। इस प्रभु के सुन्दर भौंहों के विभ्रम से शोभित कमल नेत्रों का वर्णन भला यह तुच्छ लेखनी क्या कर सकती है, जिसके खुलने मात्र से संसार के जीव तृप्त हो जाते हैं ।
प्रभु के काम के कुण्डल बड़े ही भव्य दीखते थे। वे ऐसे सोभायमान होते थे, मानो ज्योतिष चक्र से घिरे हुए हों। भला उन प्रभु के मुखचन्द्रमा का वर्णन क्या किया जा सकता है. जिसके द्वारा संसार का हित करने वाली ध्वनि निकलती है। उस प्रभु की नाक मोठ दांत और कंठ की स्वाभाविक सुन्दरता जैसी थी, उसे बताने के लिए किसी में शक्ति नहीं है। उनका विस्तृत वक्षस्थल रत्नों के हार से सुसज्जित होता था, मानों वह लक्ष्मी का मदन ही हो ।
अनेक प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित उनकी भुजायें ठोक कल्पवृक्ष के सदृश प्रतीत होती थीं। हाथों के देशों नख अपनी किरणों से ऐसे प्रतिभाषित हो रहे थे मानों वे धर्म के दक्ष अंग ही हो उनकी गहरी नाभि-सरस्वती घोर लक्ष्मी का क्रीडास्थल ( सरोवर) जैसी प्रतीत होती थी । प्रभु को वस्त्र पद की करधनों ऐसी ऐसी मालूम होती थी, जैसे वह कामदेव को बांधने के लिए नाग फांस हो ।
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