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फिर गुरु करनि नमस्कार लांछन जा भनी चितं श्वेत कमल दल पाठ तास कर्ण वसु अक्षर पाठ सिद्धाचार्य उपाध्या साध, चार विदिग दल रच्यौ अगाध जाके ध्यान मुक्तिपद बास, भये केवली पर विश्वास पापपंकजे प्राणी परं मा सुमरिन ते सब उबरं जिन तर कीनो पाप हजार, जीवतनी हिंसा जु अपार इक शत श्रादवार जे जपै प्रभुता कर सब जगमें दिये
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(चन्द्ररेशा इति सांतमंत्र)
पूरकचत हि कंज मकार, पंचशुरन के नाम प्रधान
( नमो अरहंताण, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, नमो उवज्झाणं, णमो लोए सभ्य साहूणं इति सकस विधनमिटि जांय, कर्म नाशि शिवपद हि लहाई ताके करण सफल है सात, ध्यावत ही ( णमो अरिहंताणं इति अनादि मंत्रः ) पितं पण अक्षर सार पोथ्याक्षरि विद्या नाम ले पहुंचा शिक्के धाम ॥४४१।१ षोडश शतवार जपें बुधवान फिर एक चित्त कर प्रीत होय उपास एक फलमीत ॥ ४४२॥ (सिद्धाचार्योपाध्यायनाभ्यो नमः इति षोडशाक्षर मंत्र)
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जाहीं सुमिर सुमिर सब जोय, होंहि पवित्र जु भंग सदीव ||४३३ ॥ णमो अरिहंताणं जिन नाम, घर चतुष्ट दिगदल के धाम ॥४३४ दरशन ज्ञान चरन तप जास, चित पराजित मंत्रास ||४३५|| जा गुण वह न सके जोगेश, और कहे ते बाउल मेष ।।४३६|| या सम उत्तम और न जान, भवसागर में कृपा निधान ||४३७|| या मंत्र हि आराधे सो जो तिरजंच नरक नहि होई || ४३८|| एक उपास तनों फल होइ, कर्म कालिमा डारी खोय ||४३६।। पराजित मंत्रः) उपजे अवदात ॥ ४४० ॥
सुगरी सकल मन्त्र को ईश, शिव कण्ठ कंज आकार धराय, पंकज
पुण्यशालिनी कर्म विनाश से पहुंचा
पुन पडरी विद्यासुनी हुई कमल घर लाको सुनो। जो सहज तीन बार होय उपारा तनों फलसार ११४४३|| जाके गुणको कही न ह ॥४४४॥
सा सिद्धि साधन के एह
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इति पडक्षर मंत्र )
अविचल बास अरहंत - सिद्ध मारगको दीप सरोश प्रवरण नाभिकमल पर ध्यान, मस्तक पर हिसि वरन बखान || ४४५ || हृदॐकार लखाय । वंदन जलज साकार धरत, यह श्रसिया साथ विरतंत ।।४४६ ।। (असिम उसाचाक्षर मंत्र
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चतुर वरन ध्यावे जोगेन्द्र चार पदार लहै सुरेन्द्र जपें चार चार जु ताहि, फल इक अनशनको वन ताहि ॥४४७|| कर्म निर्जरा धर्मं बढ़ाय, मिले सकल सिद्धनको जाय। प्रगट समोशरणको ऋद्धि, और अनेक सिद्धि की वृद्धि ।। ४४८ ॥
(अरहंत इति
मन्त्र )
बीज सकल मंगलको जान, सुमिरै जोगी हियमें आन । शिवपद देन हरन संताप, दिन दिन वा अधिक प्रताप || ४४६ || (सवसिद्धेभ्यो नमः इति श्रेय मंत्रः )
जी प्राकार स्वरको व्यावहीं, सो शिवपद निश्चै पावही । जपै सुमंत्र पंच शतवार करें सुवृतको फल निरधार || ४५० (कार इति कारमंत्र)
जिन मुख उद्भव ये सब कहे, जिनके साधत रुचि गुण लहे । अब सुन बीजाक्षर गुण माल पंच वरन अरु तत्व रसाल ||४५१ || थी गनपर श्रुत सागर शोध जगत जीव करण किय बोध इनको ध्यान करें जब कोय, हृदयकमल मन थिर कर सोय ।।४५२ || वशीकरण नहि इन पर घोर कर्म नाश मिति सिद्धि न दौर वंभन वशीकरण को हेत सफल सिद्धि उपजन को वेद ।।४५३ ।।
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नामके द्वारा चार भागों में विभक्त है। इस ईत्यको अशुभ और अनर्थोत्पादक कहा गया है। बन्धयोगों प्रकृति और प्रदेश तथा स्थिति और अनुभाग बन्ध ये दो दुष्ट बन्ध कषायोंके द्वारा होते हैं। इस निर्णयको स्वयं मुनीश्वरों ने ही कहा है।
जीवोंके मति ज्ञानादि उत्तम गुणोंको ज्ञानावरण कर्म ढंक देते हैं। जिस तरह कि किसी देव प्रतिमाको वस्त्रादि भाव
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