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(ॐ ह्रां ह्रीं ह्रह्रौं हः असियाउसा नमः इति ।) मंगल शरण लोकोत्तम जान, चार भांत मुनि कियो वखान । ध्यावे जा चित्त कर ठौर, ताको मुक्ति रमणि वर दौर ।।४५४।। मुक्ति सदन उत्तुग स्थान, तह चढ़ित्रेको ए सोपान । जा सुमिरत यह अंगोरूप, वाह्याभ्यंतर परम सरूप ।।४५५।।
(चत्तारि पद मंगलं- (आदि) इति चत्वारि मंगल मंत्र ।) वरण चतुरपश विद्या रंग, ताप नाम नपसी चि देम । शंका रहित अडोल शरीर, अष्टसिद्धि नवनिधिको भीर ॥४५६।। मक्ति-बधको दुती जान, जो मिलिदै सिद्धनसौ मान । वरणन और कहां लौं करौं, रसना एक चित उच्चर ।।४५७॥
( अर्हत्सिद्ध सयोग केबली स्वाहा इति त्रयोदशाक्षर मंत्र) जान राज को दाता जान, तीन भुबनयो नाथ बस्नान । रत्न चड़मणिकी सर जोय, साक्षात सरवज्ञ ज होय ॥४५॥ ताकी महिमा कही न जाय, तासु ध्यान जिय मुक्ति लहाय । जिन प्राणी याको किय ध्यान, पहुंचे, जाय मुक्ति स्थान ।।४५६।।
ह्रीं श्रीं अहं नमः-इति षडक्षर मंत्र जो समर पंचाक्षर मंत्र, कर्म तिमिर नाशन रवि मंत्र । पुण्य बढ़ावन ऋधि दातार, गुण वरणतको पावै पार ॥४६०।
(नमो सिद्धाणं-इति पंचाक्षर मन्त्र)
सर्व तत्व में परम स्थान, सकल वरनकी माला जान । क्लेश हरन है मन्त्र पुनीत, सुमरै शिवपद जाय अतीव ॥४६॥ ॐ नमोडते केवलिने परमयोगिनेऽनन्तशुद्धिपरिणाम बिस्फुरदुरुशुक्लध्यानाग्निर्दग्धकर्मबीजाय प्राप्तानन्तत्रनुष्टाय सौम्याय शांताय मंगलाय वरदाय अष्टादशदोषरहिताय स्वाहा।)
(इति वर्णमाला मंत्र) वस दल तनों कमल मन रच, तापर चरण आठ ले खर्च । दल दल प्रति इक न्यारी जान, तेजवत जिमि दीसे मान ।।४६२॥ प्रणय आदि परदक्षिण देय, इकशत अधिक सहस्र गनेय । इहि विधि अष्ट रात ली जप, एकचित्त है जोगी तपै ॥४ ॥ कर्म कलंक ताहि तजि जाय, हिंसक जीव' न नजर पराय । प्रणव सहित जो कीजै ध्यान, श्रद्धि सिद्धिको दाता जान ॥४६४॥ प्रणव तहां तजि ध्यावं कोय, कर्म नशाय जु शिवपद होय । प्रभुता कहलों कहाँ बखान, सकल सिद्धिको जनों खान ।। ४६५।। फिर चितं इक शशि ग्राकार, प्रष्ट कमल दल उदर मंझार । दल दल प्रति इक बरन धराव, तिनके नाम कहो समझाय।।४६६॥
( णमो अरहताण-इति अष्टवर्ण मंत्र) प्रादि प्रणब अरु शुन्य मंझार, अन्त अनाहत मंत्र विचार । तीन भवनको तिलक कहाय, नासा अग्र ध्यान ठहराया प्रगट ज्ञान अष्ट गुण संग, जब चिन्तं इकचित अभंग। शुक्ल वरण तिहिको ध्वावेय, मुक्ति वधू निह पायेय |YEET
(ॐ ह्रीं-इति द्विवर्ण मन्त्र) द्वौ द्वौं प्रणब धरै दो ठौर, दुह ढिग ह्रींकार है और । तिनके बीच हंसपद ध्याय, सबके मध्य स्त्री है प्राय ||REEll महा वीर्य है याको नाम, ध्यावे एक-चित्त अभिराम । मन चीते पावै फल सोय, डारै सकल कर्म मल धोय ॥४७॥
(ॐॐहीं हंस स्त्री ह्रीं ॐ इति महावीर्य मन्त्र) जप मन्त्र जो कर्मन हन, राग द्वेष आदिक जे भने । संसारी सब दुख विसराय, अनुचितौ फल प्रातम पाय ॥४७१।।
रणसे ढक दिया जाता है । जिस प्रकार अपने कार्यके निमित्त राज दरवार में जाने पर द्वारपाल रोक देता है उसी प्रकार नेत्रादि के दर्शन कर्मको दर्शनावरण कर्म रोक देते हैं। मनुष्यों के वेदनीय कर्म मधुसे चुपड़ी हुई तलवारके समान हैं इसके द्वारा प्रत्यल्प सरसोंके बराबर तो सुख मिलता है और बादमें मेरु पर्वतके समान भयंकर एवं महान् दुःख ग्राघरता है । जिस प्रकार की मदिरा को पीकर जीव मदोन्मत्त होकर किसी को कुछ भी नहीं समझता, उसी तरह अज्ञानी जीवों को मोहनीय कर्म सम्पूर्ण दर्शन, ज्ञान
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