________________
धर्म बचनको करै प्रभाव, ते बहिरा स्पजे तज चाव 1 ज्ञानावरणी कर्म उदोत, पाप सर्ने कारण सब होत ॥१४॥ जिन श्रुत देख नमन नहि कर, पर बिभूलिको लस पर जरै । करै कुदेव कुतीरथ जात, पर सुत देख मन न सुहात ।।१४२।। ते नर मरकै उपजे अन्ध, दर्शनावारणी को यह बध । महादु:ख कर पीडित तेह, भवसागर तट लहत न जेह ॥१४॥ विकथा वचन कहै शठ सदा, दोष अदोष न समझ कदा । निदत जिन श्रुत सागर धर्म, पढ़े कुशास्त्र हर्ष के पर्म ।।१४४|| जिनवर पूजा भक्ति न कर, सप्त तत्व श्रद्धा नहि धरै । अति प्रज्ञान मांहि लवलीन ते मूका उपज श्रुतहीन ।।१४५।। जो मन इच्छे को ही करै, हिंसा पाप गरव विधि घरै । ज्यों गयंद मदगत्त अज्ञान, तैसे ही बहु नर विन ज्ञान ॥१४६।। श्री जिनदेव सुगुरु सिद्धान्त, इनहि भक्ति सुपने न लहात । ते नर विकल होंहि अधिकार, मन ज्ञानावरणो अनुसार ॥१४७॥ सप्त व्यसन सेबत जे कुधी, विष आमिष लंपट मन मुधी । और पुरुष जे व्यसन घरै, तिनसों मित्रभाव चित करै ।।१४८।। जे मुनि तप ब्रत प्रादिक पूर, तिन साधुनिते तिष्ठत दू । निज वपु पोष कर अधिकार, भुगत भोग वृषभ उनहार ॥१४६।। निशि भक्षौं अरु खाय अखाद, निर्दय वथा करै विषवाद । ते नर रोग शोक को गहैं, विह्वल तीव्र वेदना सहैं ॥१५॥ जे शरीर ममता परिहरें, तप व्रत धर्म ध्यान आचरें। सब जिय जान प्राप समान, दयाभाव उर करहि प्रमान ।।१५।। दुःख शोक व्यापै नहि कदा, ते नर सुखिया उपज सदा । रोग रहित सब निर्मल गात, पुण्य तनों यह फल अवदात ।।१५।।
लोगोंका तिरस्कार होता है और निन्दा होती है। जिन लोगों ने मुर्खतावश दूसरे के दोषों को बिना सुने ही स्वीकार कर लेने का अपना स्वभाव बना लिया है, ईर्ष्यावश पर-निन्दा सुनने का एक कार्य क्रम बना रखा है, हेय शास्त्रों की कुत्सित कथाओं को सुनने का अभ्यास-सा बना रखा है तथा केबली, शास्त्र-संघ एवं धर्मात्मानों को दोष लगा देने का काम ठान लिया है वे ज्ञानावरण कर्म के उदय होने के फल मे बहरे होते हैं। जो कि बिना देख ही दूसरे के दोषों को पाखों देखा' बतलाते हैं, कटाक्षके लिये नेत्रों के विकार उत्पन्न करते रहते है, परस्त्रीके स्तन-भगादि गुप्तांगोंको टकटकी बांध कर देखते हुए भी नहीं अघाते, कुतीर्थ, कुदेव एवं कुलिगियों का आदर करते हैं वे दुष्ट नेत्र वाले पुरुष दर्शनावरण कर्मके उदय होने के फल से अन्धे होकर अत्यन्त दुःखों को भोगते हैं। जो लोग व्यर्थ में ही स्त्रीचर्ग आदि विकथानोंको प्रतिदिन कहा करते है, दोष हीन अर्हत देव, शास्त्र, सच्चे गुरु धर्मात्माओं में दोष लगाते फिरते हैं. पापशास्त्रोंको पढ़ते-पढ़ाते हैं, अपने इच्छानुकुल' यश एवं प्रतिष्ठा प्राप्तिके लिए अस्थिर चित्त पुरुष श्रद्धा एवं विनयसे रहित होकर जैन शास्त्रों को स्वयं वांचता है, धर्म-सिद्धान्तके परमोत्तम तत्वार्थों को कुतकों के द्वारा दूसरों को समझाने की दुप्चेस्टामें तत्पर रहते हैं, वे ज्ञान रहित मुख ज्ञानावरण कर्मके उदय होने के फल से बोलने में असमर्थ मुक गंगे होते हैं । जो स्वेच्छावा हिंसादि पांच पाप कमों में प्रलप्त रहते हैं, श्रीजिनेन्द्र देव के द्वारा कहे गये सम्पूर्ण पदार्थों को मदोन्मत्तसे ग्रहण करने के लिये उतावले हो जाते हैं. देव, शास्त्र, गुरु एवं धर्मके विषय में सत्यासत्यका भेद न मानकर समभावसे श्रद्धाशील होकर पूजते रहते हैं, वे मतिज्ञानावरण कर्म के उदय होने के फल से विकलेन्द्रिय हो जाते हैं । जो व्यक्ति व्यसनी मिथ्यादृष्टि वाले पुरुषोंसे मित्रता करते हैं, साधु महात्मा पुरुषोंसे सदैव दर रहते हैं वे पाप-परायण नरकादि गतियोंमें पर्यटन करते हुए पुनः दुर्व्यसनों में लीन होकर महा उग्र पापों का उपार्जन करते हैं। जो अति बिषय-सुखों में प्रासक्त हो कर धर्म-हीन हो जाते हैं और तप, यम, ब्रतादिसे रहित होकर विविध भोगों के द्वारा अपने शरीर को पुष्ट किया करते हैं, रात्रि कालमें भी अन्नादि का माहार ग्रहण करते हैं, अखाद्य न खाने योग्य वस्तुओं को भी खा लेते हैं, अकारण ही अन्य-जीवों को क्लेश दिया करता हैं, वे निर्दयी पापी असाता वेदनीय कमके उदय होनेके कारण रोगी होकर अनेक रोगों की उग्न बेदना से व्याकुल होते हैं ।
जो अपने शरीरकी मोह ममता छोड़कर तपरूपी धर्माचरण में लीन रहते हैं वे अन्य सब जोवों को भी अपने हो समान कर कदापि किसी को भी नहीं मार सकते । वे 'यह अपना है, यह पराया है' ऐसा नहीं चिल्लाते फिरते और शुभ कर्मोके उदय से दुःख, शोक एवं रोग रहित होकर सुखशान्ति को प्राप्त करते हैं । जो अपने शरीर को अलकार इत्यादि से सजानेको अावश्यकता नहीं समझते और तप, नियम एवं योग इत्यादिसे कायक्लेश-रूपी व्रत किया करते हैं, तथा अत्यन्त श्रद्धापूर्वक जिनेन्द्र देव तथा महात्मा योगियों के चरणारविन्द की सदैव सेवा करते हैं ये शुभ कर्मोदय के प्रभाव से अलौकिक रूप, गुण एवं लावण्य से सुशोभित होते हैं। जो पशुओंके समान अज्ञानी हैं वे शरीरको अपना समझकर सदैव स्वच्छ एवं सुन्दर बनाने की चेष्टा में लगे रहते हैं, अनेक प्रकारके आभूषणों से उसको सजाते हैं और शुभ प्राप्ति की अभिलाषा से कुगुरु, कुदेव एवं कुधर्म की चाटुकारिता में व्यस्त रहते हैं वे