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पर पीडा कर बांध कर्म, बोले बचन असत्य अधर्म । मूरख महानिद्य जगमाहि, श्रुतज्ञानावरणी लहि ताहि ।।१६५।। जिन गुण पाठ पठन ज कर, काल अकाल भेद उद्धरं । भव्यनि देय धर्म उपदेश, शुभ मारग वरतावत शेष ।।१६६।। काहै सत्य बन सब सुखदाय, मृषाभाव नहि मन वच काय । श्रुतज्ञानापरणी तब तज, श्रुतज्ञान पद परगट भजे ॥१६७।। दिरकत है भवभोग शरीर, जिन सद्गुरु सेबत मन धीर । धर्म अधर्म विवेकी तेह, तत्व आदि मन चितत जेह ॥१६८।। दुराचारत रहित पुनीत, कौटिलतादि विजित मीत । शुभ प्राशयते ही नर कहै, पुण्य उदय सब शुभपद लहै ।।१६६।। पर तिय हरण निपुण जे सखा, कुटिल चित्त है जड़ सरवदा । जत्र मंत्र उच्चाटन आदि, चेटक नाटक करें अनादि |॥१७॥ दुराचारः पाल' अति धनी, दुरवबुद्धी उर है नहि तनी । अशुभाशय तेही नर जान, पाप तन कारण यह मान ॥१७१।। जे बहुविध जिन पूजा करें, धरमभाब निशिदिन पाच । हैंय सुपात्रहि उत्तमदान, परम भक्ति अति उरमैं पान ॥१७२।। तप व्रत उर आचरण कराहि, लोभ रहित मन विकलप नाहिं । सार संपदा पावं तेह, 'अनबाछ आवं गृह तेह ।।१७३।। पात्रदान जे समरथ नाहि, जिन पूजे नहि धर्म लहाहि । पर उपकार न किंचित करें, तृष्णा अति लक्ष्मीको धरै ।।१७४।। लोभवंत है किरपण महा, किरिया व्रत नहि जान कहा । सो नर दुखित दरिद्री होई, भव भव सदा निरधनी सोई ॥१७५।।
अपनी दव द्धिक कारण विषय-सुस्त्रों में लीन होकर मिथ्याती देवादिकों की भक्ति में श्रद्धा करते हैं वे नरकादि स्थानों में चिरकाल पर्यन्त रह कर अनेक यन्त्रणानोंको भोगते हैं । इसके बाद भी पापोदयसे पुनः नरक निवास पाने के लिये पापकर्म में प्रवृत्त रहकर पापी हो रहते हैं। इसके विपरीत जो लोग परम-भक्ति पूर्वक प्रत्येक दिन उत्तम पात्रों को आहारादि का दान करते हैं, श्री जिनेन्द्रदेव, गुरु एवं जैन शास्त्रों की श्रद्धापूर्वक पूजा स्तुति किया करते हैं वे धर्म कार्यों के प्रभाबसे उत्तमोत्तम भोग सामग्रियों को प्राप्त करते हैं। धर्म सिद्धि के निमित्त जो लोग भाग्य प्राप्त धन सम्पत्ति को ठुकरा देते हैं स्थिर चित्त होकर धर्म साधना में प्रवत्त रहते हैं व भी अन्त में परमोत्तम भोग्य सम्पदामों को प्राप्त करते है । जो अपने अन्याय पूर्ण कार्यों द्वारा सुख भोगों की अभिलाषा करते हैं, भोगापभोग के बाद भी असंतुष्ट रह जाते हैं स्वप्न में भी जिनेद्रदेव की पूजा और उत्तम पात्रदान नहीं करते तथा लोभ वश लदमोको पा लेना चाहते हैं, वे धर्मवतसे हान होने के कारण पाप के भयंकर फलों से दुःखित होते हैं और अनेक जन्म पर्यन्त धनहीन दरिद्र होते हैं । जो लोग पशु, पक्षी और मनुष्योंके बाल-बच्चों एवं बन्धुबन्धुनोंसे वियोग उत्पन्न करा देते हैं तथा दुसरीकी स्त्री, धन पोर अन्यान्य वस्तुओं को जबरदस्तो या बूरा कर ले लेते हैं दुःखशील पापात्मा अशुभ कर्मके उदयसे निश्चय रूपेण पुत्र, स्त्रो, भाई और अन्य इष्ट जनास समय-समय पर बियोग हो जानेके कारण दुःख भोगते हैं। इसके प्रतिकल जो लोग पशु प्रादि जीवोंको ताड़ना इत्यादि नहीं करते और उनके परस्पर वियोगके कारण नहीं बनते वे कदापि दुःखको नहीं प्राप्त कर सकते । जो कि सदैव सन्न होकर सर्वदा जैन मतानुकूल ही जैनियोंका अभिलषित सम्पत्ति के द्वारा पालन करते हैं, दान और पूजा आदि विधि पूर्वक धर्मानुष्ठान करते हैं, तथा इस पुण्यके फलस्वरूप मोक्ष के अतिरिक्त्त अन्य और किसी प्रकार से स्त्री पुत्र धनादि की किचितमात्र भी इच्छा नहीं करते, उन पुण्यात्मानों के पुण्योदय से अभीष्ट स्त्री, पुत्र एवं स्वजनादि का संयोग अपने आप ही अप्रत्याशित रूपसे हो जाता है तथा धन इत्यादि सुख सम्पदाएं भी स्वयं ही प्राप्त हुआ करती हैं।
जो धर्म प्रिय पात्रोंको दान किया करते हैं, जिन प्रतिमा, जिन मन्दिर, जैन विद्यालय प्रादिकी संस्थापना में धर्मसिद्धिकी इच्छासे श्रद्धापूर्वक धन व्यय किया करते हैं उनको दानशीलता प्रसिद्ध हो जाती है। इस लोकमें तो वे प्रतिष्ठा प्राप्त करते ही है, परलोकमें भी उनका कल्याण होता है। जो कृपणतावश परलोकों में दान नहीं देते, जिन पूजा इत्यादिमें भी मुक्त होकर धन व्यय नहीं करते और जगतकी परमोत्तम सुख सम्पत्तिको भोगना चाहते हैं बे महा लोभी और अज्ञानी हैं। पाप कार्यके प्रभावसे चिरकाल पर्यन्त बे निम्नग तिमें भटक चुकनेके बाद समीपिगतिमें जाने के लिए कृपण (कंजूस) होकर उत्पन्न होते हैं। इस पाप कार्य के प्रतिकूल जो लोग अर्हत, गणधर प्रादि मुनि एवं प्रन्यान्य धर्मात्माओंके अत्यन्त उत्तम गुणोंकी प्राप्तिके लिए सदैव उनका चिन्तन किया करते हैं वे सम्पूर्ण दोषों से दूर रहते हुए धेष्ठ गुणवान हो जाते हैं और विद्वन्मडलीमें उनका आदर सम्मान होता है। जो लोग स्वभाव वश मूढ़ होने के कारण गुणी पुरुषों के श्रेष्ठ गुणों को ग्रहण न करके दोषों का ही ग्रहण करते हैं, गुण रहित कुदेव इत्यादिके फल-हीन गुणका स्मरण करते रहते हैं और मिथ्यामार्गी प्राडम्बरंयुक्त पाखण्डियोके दोषोंको कुछ नहीं जानते वे इस संसार में निर्गन्ध फूलके समान गुणहीन हैं। जो धर्म जिज्ञासु होकर धर्म प्राप्ति के लिये, मिथ्या दृष्टि देवोंको एवं
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