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इहि विधि कायकलेश अपार करत पुरुष बहु परकार ।। १५३ ।। पुण्य प्रकृति शुभ पाय संजोग, ते नर लहैं दिव्य तन भोग ।। १५४ ।। होद कुरूपी ते दुख पूर अशुभ उदय पर पाप मंकूर ।। १५५॥ रिज पर नियम दोय परकार ।। १५६।
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ते नर सुभग होहि जगमांहि, सब जगको प्रिय करता ताहि ।। १५॥ सह आदि पद धारे गये परति द्वेष विचारं सर्व ।। १५८॥ तेन भंग होंहि प्रचार निदत विश्व दुःखको भार ।। १५९ ।। पंथ पूजे कुचिव कुबेद कुन्ध, व्यभिचारी जाने नहि पच ।।१६०॥ निंदक महापापको सूर, मशुम उदय दुर्गति अंकुर ।। १६१ सबको देहि सुधि उपदेश, तप अग धर्म आदि बहु येष ।। १६२ ।। मंद करें मतिज्ञानावरण, मतिज्ञान जगमें उद्धरण ।। १६३ ।। दुराचारा बुध होइ कुल पाठ विस्तहि खोइ ।। १६४।।
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उनको संस्कार नहि करे जम भ नम जोग तप धरे जिनवर चरणकमल जुग नमैं, परमभक्ति जुन पापनि बमैं कुगुरु कुदेव कुपसंहि भवं सुगुरुदेव भूत था तवं जिन्दर परम भक्ति उर पर घरमुनिवर को करें तन ममत्व नहि राखें लेश, जोतं इंद्रिय तस्कर वेष मन मलीन मल लिहु अंग, महा विनावश दुर्जन पाय प्रीति बहु करें, सुरजन देश दमन घरं देवं कुमत दीक्षा जग जेह, पन वंचक उद्यत अति ते सत्य सत्य न जाने भेद, गतिज्ञानावरणो यह खेद तत्व असत्य विवेकी जेह, गुवा वचन बोलें नहि तेह सार वस्तुको ग्राहण करें और कुमति विधि सब परिहरे श्रीजिन पाठ पठन नहि करें, मदन गर्न उर धरें
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शुभ कर्मके उदयसे भयानक कुरूप होते हैं जो कि जिनेन्द्रदेव, जैन शास्त्र एवं निर्ग्रन्थ योगियों की महर्निश भक्ति में तत्पर रहते है तप, धर्म, व्रत एवं नियमादि के पालन में दत्त मिल रहते हैं, देह की ममता का परित्याग कर सम्पूर्ण इन्द्रियरूपी महा बलवान् चोरोंको जीत लेते हैं वे सौम्य कर्मके उदयसे सबके नयनाभिराम होते हैं एवं भाग्यशाली कहे जाते हैं। मलयुक्त शरीरको देख कर जो अपने रूपलावण्य आदि के अभिमान से मुनियों से घृणा करते हैं, परस्त्री की अभिलाषामें रत रहते हैं अपने पारिपारिक बन्धुओं से सत्य बोलकर द्वेष मान बैठते हैं, वे दुभंग नाम कर्मके उदयसे एवं निन्दनीय दुभंग दरिद्र होते हैं जो दूसरों को धोखा देकर ठगा करते हैं इस कार्यके लिए किखीको साह देते हैं, देव गुरु एवं शास्त्र के विषय में बिना तथ्य का निर्णय किये ही अपना धर्म समझ कर पूजा भक्ति में तत्पर रहते हैं वे मति ज्ञानावरण क्रमंके उदय होनेसे निन्दनीय, कुबुद्धि और मूर्ख होते हैं । किन यदि धर्मकार्यों में अन्य लोगों को बननी जाह दिया करते हैं, मतस्य एवं तत्व वस्तुओं का नियम पूर्वक विचार किया करते हैं तथा इसके बाद साररूपपद वस्तुको ग्रहण किया करते हैं, संसार को वस्तुयों का परित्याग कर देते हैं वे सुयोग्य एवं चतुर-पुरुष श्रेष्ठ मति ज्ञानावरण के क्षयोपश के कारण महा विद्वान हो जाते हैं। जो दुष्ट प्रकृति पुरुष ज्ञानाभिमानवश पढ़ाने योग्य व्यक्तियों को भी नहीं पढ़ाते हैं जानते हुए भी जयन्य धर्मों में प्रवृत्त रहते हैं, कल्याणकारक नाम छोड़कर धन्य कुशास्त्रांको विद्याको पढ़ाते हैं, तथा शास्त्र निन्दित कटु एवं परपीड़क एवं धर्म होन असत्यपूर्ण वचनोंका बोला करते, वे श्रुत ज्ञानावरण कर्मके फलसे अत्यन्त निन्दनीय बोर महामूर्ख होते है। जो लोग सदैव स्वयं तो या बिनागम को पढ़ते हो है साथ हो दूसरीकी भी पढ़ाते हैं तथा काल इत्यादि ग्राठ प्रकारको विधियांसे जैन शास्त्रोंका व्याख्यान किया करते हैं, धार्मिक आदेश के द्वारा अनेक नव्यजीवों को ज्ञान प्रदान करते हैं एवं स्वयं भो नि दिन धर्मकार्यने तत्व रहते है, कणकारी सत्य वचनों को कहते हैं सत्य वचनका प्रयोग कदापि नहीं करते वे अनावरण कर्मके मन्द हो जाने से जमदादरा विद्वान हो जाते है जो लोग इस ससार, शरीर एवं सम्पूर्ण भोगांसे विरक्त होकर जिनेन्द्र देव तथा गुरु श्रेष्ठ वचनों के प्रभाव से उत्तमात्तम गुणों का एवं परम धर्मका अपने मन में निरन्तर चिन्तवन किया करते हैं, धानंद धर्म यतिरिक्त कुटिलता इत्पादिका अपने हृदय कदापि स्वान नहीं देते वे शुभ कार्यों के करने के कारण शुभ परिणामी कहे जाते हैं।
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जो कुटिल परिणामी पर स्त्री-हरण आदि के विषय में हमेशा विचार किया करते हैं, पुण्यत्माओं का अकल्याण चाहा करते हैं. मूर्ख जघन्य धाचरणों को देखकर मन हो मन प्रसन्न हुआ करते हैं, वे अशुभ कर्मादय पापोपार्जन के लिए अनुभ परिणामी होते हैं। जो तप, व्रत एवं क्षमा प्रभृतिले श्रेष्ठ पात्र दान एवं पूजा इत्यादि से तथा दर्शन, ज्ञान एवं चरित्र से सर्वदा रहते हैं, वे पद के उत्तमुत्र भोगों को भोग चुकने के बाद पुण्योदय से उच्चपद का प्राप्ति की अभिलाषा वदा होकर धर्म-कार्यको करने वाले धर्मात्मा होते हैं। जो लोग हिंसा और सत्य सम्भाषणादिके द्वारा पाप कर्म किया करते हैं।
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