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पशु पर नरका कर विमोम, बंधादिक उपजावं सोब । पर प्रस्त्रो पर धन जे हरै, शोल रहित शट पाहि करें ॥१७६।। जनम जनम ते लहं विजाग, सुभकामिनि बांधा का साग 1 इष्ट वस्तुको विकलप पाय, पोड़े हृदय दुःख अधिकाय ।।१७७।। सकल देव रक्षा उर धरे, बंबु विजाम न कई करे । जिन शासन पापित परतोन, प्रत अरु धर्मध्यान लों लोन ॥१७॥ त नर पावे सब संजाग, सुख प्रमोष्ट सुन संपत भोग । बांधव सुजन गेह वर नार, पुण्य सफल कारण सविचार ।।१७।। उत्तम पात्र दान जे देई, भक्ति भावना मन पत्र लेई । जिन प्रतिमा चैत्यालय कर, धर्मध्यान अति उरमें धर 1१८०॥ पूरब संसकारत लहैं, श्रेष्ठ सुपद उत्तम कुल गहैं । अरु परिजन बहु सेबैं पाय, सब सुख होय पुण्य सों आय ।।१८।। दान देन का कृपण अतोच, जिन पूजाको गहत न सीव । ते मर दुर्गति भव भव भ्रमैं, सब परजाय प्रादि बहु गर्म ।।१८२॥ जे सेवं अरहत गणेश, ध्याबै तिन गुण जगत महेश । शील सहित काया दृढ़ राख, ते गुणवान कहै बुध भार ||१८३।। दोष तनों बहुग्राह जु करें, महामह अत्रगुण विस्तर । करें कुदेव सेव सुख मान, धरै डिभ प्रारम्भ अजान ।।१८४॥ सोख कुलिंगोको उर धरै, अरु मिथ्या मारग बिस्तरै । ते निर्गुण उपजे जगवास, विन सुगंध ज्यों फूल कपास ॥१८॥ तीन जगत स्वामी अरहंत, गुण गणेश पागम कथयंत । तिनकी मन बच सेवा कर, अझ रतनत्रय तस उर घरै ।।१८६।। धर्मध्यान प्राराधे सोई, मिथ्यामत त्यागं भ्रम खोई । पुण्यबंत उपजै नर सोइ, विश्व संपदा पावहिं जोइ ॥१८७|| दया रहिल जे व्रत कर होन, पर बालकको हनत मलीन । कर बहुत मिथ्यामत साज, निज सन्तान सिद्धि के काज ।।१८।। चंटिक क्षेत्रपालको सेव, इत्यादिक पूजै बहु देव । अलप प्रायु तिनके सुत लहें, पापवंत दारुण दुख स. ॥१८६।। अहिंसा प्रादिक व्रत संजुक्त, श्रद्धा कर माने जिन सुत्त । मिथ्या मारगको परिहरे, इष्ट वस्तुको साधन करें ।।१६०॥ तिनक रूपवंत सुत होइ, पूरण प्रायु लहै पुन साइ । परम प्रतापी सुखको मूर, सकल पुण्य कारण भरपूर ।।१६१॥
केवल वेष धारो अजानो साबमाको सेवा भक्ति तत्पर रहते हैं तथा श्री जिनेन्द्र श्रेष्ठ योगो एवं धर्मात्मा पुरुषों को सेवा कदापि नहीं करते वे अपने पाप के फल से पशुओं के समान एकदम पराधीन होकर इधर उधर दूसरों की नौकरी करते-फिरते हैं । इसके विपरोत जो सम्पुर्ण मिथ्यामतोंका छोड़ कर मानसिक, वाचनिक एवं कायिक शुद्धि-पूर्वक अर्हत एवं गणधर आदि मुनियों को पूजा-स्तुति-नमस्कार किया करते हैं वे पुण्योदयसे इस संसार में सम्पूर्ण अतुलित भोग संपदाओं के स्वामो होते हैं। जो दयाहीन व्रत इत्यादि न करके अपने पुत्र पौत्रादि वंशवद्धि के लिये अन्यजीवों के पुत्रों का बध कर डालते हैं तथा इसी प्रकार के और भी मिथ्यात क्रियाओं का कर डालते हैं उनका मिथ्यात्व कर्म के प्रभाव से अल्पायु पुत्र उत्पन्न होते हैं और उन मिथ्याती पापियों के पूत्रोंका विनाश बहुत शोघ्र हो जाया करता है। जो चण्डी, क्षेत्रपाल, गौरी, भवानी, इत्यादि मिथ्याती देवों की सेवा-अर्चा पुत्र प्राप्ति को इच्छासे करते हैं प्रोर सम्पूर्ण मनाकामनाओं को पूर्ण करने वाले ग्रहत प्रभु को सेवा नहीं करते वे मिथ्यात्व कर्मके उदयसे जन्म जन्ममें सन्तान हीन बन्ध्या स्त्रियोंको प्राप्त करते है । जो दूसरे पुरुषों के पुत्रों को ही अपना पुत्र समझ कर कदापि नहीं मारते बल्कि प्यार करते हैं, मिथ्यात्वको शत्रु के समान जान कर छोड़ दिए हैं एवं अहिंसा आदि अतोंका नेवन करते हैं, अभीष्ट प्राप्ति के लिए जिनेन्द्र, सिद्धान्त एवं योगियों की पूजा करते हैं उनके शुभ कर्म के उदय से अलौकिक रूप लावण्य बाले एवं दीर्घायु पुत्र उत्पन्न होते हैं। जो प्राणी तप, नियम, उत्तम, ध्यान, काय क्लेश आदि धर्मकार्यों को कठिन समझ कर दीक्षा लेने में अपने को असमर्थ समझकर डरते हैं वे इस लोक में पापोदयके कारण सम्पूर्ण कार्यों में असमर्थ कायर होकर उत्पन्न होते हैं। तथा जो लोग साहस पूर्वक तप, ध्यान अध्ययन, योग एवं कायोत्सर्ग इत्यादि महा कठिन धर्म कार्यों के अनुष्ठान में थोचित होकर तत्पर रहते हैं, तथा अपनी शक्ति के अनुसार कर्मरूपी शत्रुनोंको नष्ट कर डालने के लिये अनेक कष्टों एवं परोषहों को सह्य समझते हैं वे धैर्य घर पूरुष पुण्योदय के प्रभाव से सकल कार्यों को कर डालने की क्षमता रखते हैं।
जो जड़मति जीव जिनेन्द्र, गणघर, जैन शास्त्र, निर्ग्रन्थ मुनि, श्रावक एवं घमात्माओं को निन्दा करनेमें दत्त चित्त रहते हैं तथा पापी, मिथ्यादेव मिथ्या शास्त्र एवं मिथ्या साधनों की प्रशंसा किया करते हैं बे अनेक दोषों से युक्त होते हैं और अपयश कर्मके उदय से त्रलोक्य में निन्दनीय होते हैं, जो लोग दिगम्बर, गुरु, ज्ञानी, गुणी सज्जन एवं सुशोल पुरुषों की अन्तःकरण को शुद्धिके द्वारा सदैव सेवा, भक्ति एवं पूजा किया करते हैं तथा सम्पूर्ण प्रतोंका आचरण करते हुए अपने मन, वचन, कायकी शीलकी रक्षामें तत्पर रहते हैं वे धर्म-फलसे स्वर्ग एवं मोक्षको प्राप्त करके शीलवान होफर उत्पन्न होते हैं। जो लोग दुःखशील,