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चौपाई बेर कोरा जामू चार, बेल करोंदा तुत मुरार । कुमड़े बिंब गड़ेली भटा, फुट कचवेड़ा कलिदे गटा ॥४७॥ सूरन मूरा आदी हरी, मारु कन्द मूल गाजरी । इत्यादिक जे और अपार, इनमें जीव राशि अधिकार ||४८ ||
तीन मकार दूषण दोहा
सब घर इन मक्षी रहें, करें वमन इक ठौर । उपजै तहं अंडज अधिक, वुड़ मरे चहु दौर ||४६|| जीव मरे यह होय मधु, जे भक्षं सुख पाय । ते धठ पावें कुगति पथ पाप हि शिर वाय ॥ ५० ॥
नैनू काचो दुब पऊंसी, महुआ आदि वस्तु बहु और जो यह पथ नि फोक
अतीवर वर्णन
अन्य जाति को भाजन लेइ दिना दोयको तॠहि धरं द्विदल वस्तु ले इकट्ठी करें ।।५४।। अनजाने को जल लेइ । ए सब मद्य दोष दुखदाइ, इनको त्यागे शिवसुखदाई ॥ ५५ ॥ मांस दूषण
जीव घात विन होय न मांस, पाप करम जानौं यह भास सूक्षम जीव परेंता मांहि दृष्टिहिकी लखि भावे नाहि ।। ५६ ।। जौली जिस विनशे ग्रह देह, तौलों निरमल है अधिके । जीव गये तन मुरदा होय, महा अपावन छुवै न कोय ।। ५७॥ पर जिय मार मांस जे खाय ते धिक दुरगति दुःख लहाय । मांस त्याग व्रत पाले जेह स्वर्गनके सुख भगते तेह ॥ ५६ ॥ प्रतीचार
स्वाद चलित जो वस्तु ग्रहे, फूल संघकै मुख में देद, श्ररु
चौपाई
प्रप्रामुक जल थाने वसी । इन्हें आदि दे और अनेक मधुके, प्रतीचार तज सेक ॥५१॥ तिनिको सार रच मद गर । त्रय यावर जहं जीव अनंत, उपजै मरे लहे नहि श्रन्त || ५२ || बाला त्रिया न जान सीव । दूहि भव निद्य होय अधिकार, परभव पावे दुरगति भार ||५.३॥
घउ तेल जल हींग अतीव अनजाने फल भक्षण
होय चरम संगति बहु करें, मासहि प्रतीचार ते
जीव हाट नून फल हरित जु शाग, पंच फूल बहु बीजक भाग ॥५६॥ धरें। जो नर इनको त्यागन करें, सकल दोष निश्च परिहरं ॥ ६० ॥
दोहा
इनि अष्टों में पापप्रति दोष सहित जब त्याग । तब श्रावक व्रत संभव, धरी मूलगुण भाग ॥ ६१ ॥
ऐसा नहीं होता । स्वर्ग एवं मोक्ष को देनेवाला पंच नमस्कार महामन्त्र है, इसके अतिरिक्त ऐसा प्रभावशाली कोई अन्य मन्त्र नहीं हैं । कर्म एवं इन्द्रियोंके समान इस लोक और परलोक में भीषण दुःख देनेवाला और कोई दूसरा नहीं है। ऐ गौतम, तू इन सबको सम्यक् दर्शन का मूल कारण जान ले । यह ज्ञान दर्शन एवं चारित्र दर्शन का प्रधान कारण है, मोक्ष रूपी महलकी सोपान ( सीढ़ी) है और व्रत इत्यादि का मूल स्थान है। इस सम्यक् दर्शन के बिना सब ज्ञान प्रज्ञान, चारित्र कुचारित्र एवं सम्पूर्ण तप निष्फल हो जाते हैं। इस बातको दृढ़ता से समझ कर निःशङ्खादि गुणोंके द्वारा शंका, मूढ़ता इत्यादि आवरणों को एकदम दूरकर चन्द्रमा के समान प्रति स्वच्छ सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिये तथा पालने पर अविचल भावसे दृढ़ रहना उचित है। वैपरीत्य से होन यथार्थ तथा तत्वार्थों अर्थात् पदार्थों का ज्ञान सज्जन पुरुषों को प्राप्त करना चाहिये । इसीको व्यवहार सम्यक् ज्ञान कहते हैं। इस उत्तम ज्ञान के ही द्वारा धर्म-पाप, हित-अहित एवं बन्ध मोक्ष का यथार्थ बोध होता
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