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देव कुदेव बरावर मान, सुगुरु कुगुरु इक सम पहिचान । पृथक पृथक नहि अन्तर दीस, तीन मूढ ऐ दोष पचीस ॥२८॥ शान गरब' कर अरु मतिमन्द, निठुर वचन भाष दुखकन्द । रुद्रभाव पुनि आलस धार, ये हो नाश पंत्र परकार ।।२।। लोकहास भवभोग सहाइ, मिथ्यामारग भगति, लहाइ । मिय्या दरशनि, अग्र जु सोच प्रतीचार ये पांचों मोच ॥३०॥
मिथ्यात्व निरूपण जे मिथ्यात करै दुखदाय, समकित हेतु न तिनै सुहाय । पूजै हाथी घोड़े गाय, ने मरि पावहि दुख परजाय ॥३१॥ बड़ पीपल ऊमर आंवरी, तुलसी देव निगोद जू भरी । इनकी सेवा जो नर करे, निश्चय ते ही गतिको धर ॥३२॥ व्यन्तर आदि सती शीतला, सूरज लधे चन्द्रकी कला । यक्ष नाग गृह-देवो जान, नी होम जे प्रायुध मान ।।३३।। गोवरको पूजा जे कर, बवै, भुजरिया मुह सुजाय । पितर सराध कर सुख पाय, गंगा जमना बंदै जाय ॥३४॥ ये सब मिथ्या मारम साज, तजिये सब समकितके काज । अब समकितकी महिमा जान, कही कछु संक्षेप वखान ॥३॥
सम्यक्त्व महिमा थावर विकलत्रय नहि होइ, और निगोद असैनी सोइ । जाइ कुभोगभूमि नहि कदा, मलेच्छ खण्ड उपज नहि तदा ॥३६॥ प्रथम नरक मागे नहि जाय, भवनत्रिक बह नहीं लहाय । तीन बेद में दोई न धरै, मनुष्य नीच कुल नहि विस्तरै ।।३७|| जब क्षायिक समकित दढ़ होद, तब ये पदवी धरहि न सोय। नर गतिमें नर ईश्वर जान, देवनमें सो देव प्रधान ॥३८॥
दोहा
नभ में जैसे भान हैं, चिन्तामणि मणि ताहि । कल्पवृक्ष वृक्षन विषै. मेर सकल नग मांहि ॥३६॥ सब देवनमें देव ज्यों, त्यों, समकित अविकार । सब धर्मन को मूल है, महिमा तास अपार ॥४०॥ व्रत तप संजम बह घरं, समकित विन जनामांदि। जैसे कृषि सेवा कर, मेघ बिना फल माहि ।।४।। धर्म मूल सम्यक्त्व कहि, शाखा दोय प्रकार । स्वर्ण मुकतिदायक सही, श्रावक जतिवर सार ॥४२॥
अथ श्रावक धर्म वर्णन
चौपाई अपन किरियाको अधिकार, मो श्रावक उत्तम प्रत धार । प्रथम मूलगुण अष्ट प्रकार, थारह व्रत द्वादश तप सार ।।४३॥ सामायिक किरया इक सोय, एकादश प्रतिमा अवलोय । चार दान जल गालन एक, इक प्रथउ रतनत्रय टेक ॥४४॥
मूलगुण वर्णन
दोहा पंच उदम्ब र जानिये, तीन मकार समेत । इनको त्यागी पुरुष जो, अष्ट मूलगुण नेत ।।४।।
पंच उदम्बर फलों के नाम वर पोपर ऊमर सहित, कठवर पाकर एह । पंच उदबर फल तजै, जीव राशि दुख लेह ।।४६।।
नहीं और पांच परमेष्ठियों से बढ़कर भव्यजीवों के लिये कोई दूसरा कल्याण एवं हितकारी नहीं हो सकता। इसी तरह उत्तम पात्र दान से श्रेष्ठ कोई अन्य प्रकार का दान मोक्ष का कारण नहीं है। केवल ज्ञानको देने वाले प्रात्म-ध्यान से बढ़कर कोई भी दसरा उत्कृष्ट ध्यान नहीं हैं। धर्म एवं सुखको प्रदान करनेवाली साधु महात्मा एवं ज्ञानी धर्मात्माओंकी ही प्रीति है, अन्य किसी की प्रीति से सूख-धर्म नहीं प्राप्त हो सकता । कोका नाश करने वाला बारह प्रकार के तपों का ही फल है, अन्य किसी तपसे
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