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चौपाई माइ बहिन पुत्री समचित्त, परदारा इम जानों मित्त। अथवा सांपिनसी मन धरौ, दुखकी खान दुर परिहरी ॥७२।। शील विना नर लाग इसौ. विन पापी को मोती जिसॉ। मन निर्मल जिमि जल सुरसरी, ब्रह्मचर्य अणुव्रत है तुरी ।।७३।
दोहा रावण नप नरकहि गयौ, पर नारी के काज । सेठ सुदरशन शील ते, पायौ शिवपुर राज ।।७४।।
चौपाई प्रानीकी तृष्णा अति धनी, पूरण होय नहीं तिहि तनी। तीन लोककी लक्ष्मी पावं, तो भी वह संतोष न आवं ।।७५11 यातें बुधजन करत प्रमान, क्षेत्र वास्तु मेवक धन धान । असन वस्त्र शृंगार भंडार, चौपद जुत दश परिग्रह भार ॥७६।। यह परिग्रह जानौ दुखदाय, पाप मूल भाषौ जिनराय। यात जे भवि रहित उदास, सो परिग्रह परिणाम हि भास ।।७।।
दोहा सत्यघोष अति लोभते, सहे दुःख अधिकार । शालिभद्र संतोष त, लह्यो सिद्ध पद सार ।।७।।
तीन गुणवतों का वर्णन दिन विदिशा का संख्या कर, तहत उलंघ नहीं पग धरै। प्रथम गणव्रत जानौ येह धावक को निर्मल गण तेह ॥७६|| खोदन काटन जल वहु डार, वायु प्रगति परजाल भार। अठ वचन, चोरी, परतिया, विकथा कहै त सब क्रिया 11८०॥ विना प्रयोजन जाय न कही, पापारम्भ होय पथ मही। अनरथ दंड कबहुं नहि कर, द्वितीय मुणब्रत उत्तम धरै ||८१।। बत आचार जहां नहि होय, ताहि देश जय नहि लोय । कर प्रमाण भोग उपभोग, तुतिय गुणव्रत उत्तम जोग ।।२।।
चार शिक्षावतों का वर्णन
देशावकाशिक शिक्षानत जिन मन्दिर जिन प्रतिमा कर, तहां धर्म वहविधि विस्तर। गमन तनी संख्या नित धरै, देशवकाशी व्रत अनुसर॥५३||
मोक्षके बिना भला, अक्षय परम सुख कैसे प्राप्त किया जा सकता है। दूसरों की बात ही कौन चलाये, स्वयं त्रैलोक्य पूज्य एवं देव बन्ध तीर्थकर प्रभु भी चारित्र के बिना मुक्ति रूपिणी स्त्री के मुखारविन्द का दर्शन नहीं कर सकते । जिस तरह दन्तके विना उत्तने बड़ हाथीको शोभा नष्ट होजाती है उसी तरह चारित्रके बिना मुनि भी शोभा नहीं पा सकते ! क्या हुआ, जा वहत दिनों से दोक्षा कारज करने बाल हैं, सब में श्रेष्ठ हैं, और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता है। चारित्र के बिना वे नगण्य ही हैं। इसलिए बुद्धिमान पुरुषोंक चन्द्रमाके समान अति स्वच्छ चरित्र को धारण करना चाहिये तथा स्वप्न में भी असर्ग एवं परोपहों से दःखी होकर शरीरका परित्याग कदापि नहीं करना चाहिये। क्योंकि ये रनत्रय स्वत: तीर्थकरादि शुभ कर्म के कारण हैं, निश्चय रत्नत्रय के साधक है, भव्य जीवों के लिए सार्थ-सिद्धि तक महान सुखों के देने वाले हैं, श्रेष्ठ हैं, अनुपमेय हैं लोकबन्ध हैं और भव्यजीवों के परम हितंपी है।
जो असंख्येय गुणों का समुद्र है, आत्मा के स्वरूप का श्रद्धान है और कल्पना होन है, वह निश्चय सम्यक्त्व है। परमात्माके अन्तरंग (भीतर) में जो ज्ञान है और जो संवेदन (अपने ही प्राप) ज्ञानसे जानने के योग्य है बह निश्चय ज्ञान है। वाह्य (वाहरके) और अभ्यन्तर (भौतरके) सम्पूर्ण विकल्पों को छोड़कर अपने प्रात्मा के वास्तविक स्वरूपमें स्मरण करना है उसीको निश्चय चरित्र कहा जाता है। ये निश्चय रूपी तीनों रत्न सम्पूर्ण वाह्य चिन्ताओं से हीन हैं, विकल्प रहित हैं. और ऐसा होनेके ही कारण भव्य जीवोंको निःसन्देह रूपेण मोक्ष देने वाला है। व्यवहार रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय