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सामायिक शिक्षानत
आरत रौद्र ध्यान परिहरे, अरु निज तनको निरमल करें। सब जियस समता उरलाय, धरम ध्यान इक चिनीला ॥४॥ स परीषदृढ़ कर काय, श्री जिनपद को जपन कराय । तीन काल सामायिक साथ, यह सामायिक व्रत प्राराव ||८||
प्रोपभोगवास शिक्षायत
सातें तेरस शुद्ध अहार, एका भगत करें विधि सार । फिर पोसह पावहि निरभंग, सब ग्रारम्भ परिह प्रसंग || ८६|| प्राठे चौदशि प्रोषच धरै खाद्य स्वाद्य पय लेह न करें। पुन्यों मावस नोमी आन, तब आहार लेह शुभ जान ||८|| सोरा पहर हि उत्तम को चौदह की पुनि मध्यम लही बारह पहर अन्य ने
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पोष व्रत कहि विधि ठाने ।
अतिथिसंविभाग शिक्षाव्रत
जब छह घरी चढ़े दिन बाद द्वारापेन की भाइ तिहि पाछे निज भोजन करें, परम पुष्यकारण गुण धरै चार प्रकार दान जो वेद, अतिथि संविभाग प्रत न
मुनिको पाय देव शुभदान विधिपूर्वक निर्मल उरमान ॥ मुनिवर दान योग नहि होद रसत्यानी तब कीज्यो खोइ ॥ ६०॥ ये चारों शिक्षावत जान हे सुर संपति सुलखान ॥ ६१ ॥
अथ तप वर्णन
दोहा
वारहतप व्योहार कर मालहि श्रावक सो तिन हि भेद पूरव को फिर वरनन नहि हो ॥६२॥
सामायिक वर्णन
सामायिक विधि करें, धावक परम पुनीत सो शिक्षा प्रत में कहा जान खोजियो मीत ॥ २३ ॥ ग्यारह प्रतिगामों का वर्णन
विषय सौं जु उदास यति, संजम भात्र सौ ठाम उदय प्रतिज्ञा को करें, प्रतिमा जाको नाम ||२४|| चौपाई
मल पच्चीस विवर्जित सोई, दर्शन प्रतिमा श्रावक होई ||१५|| शिक्षान चारों परवान, व्रत प्रतिमा जी पहिचान ॥६६॥
आठ मूल गुण पालै जब सात व्यसन तज दोने सबै पंच अणुव्रत लहिके सोय, तीन गुणव्रत धार जो
मिलकर दो प्रकारके विशाल मोक्ष मार्ग में मोर मोक्ष भी महा सम्पति को देने वाले हैं। मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों की चाहिये कि मोह रूपी फन्द (फांसी) को तोड़कर सदैव इन दोनों राजयको स्थिर भाव से अनुष्ठान करते रहें इस संसार के जितने भी भव्य जीव मोक्ष को प्राप्त करने की चेष्टा में क्रियाशील है इन दोनों रत्नत्रयों को बिना पालन किये सफलता नहीं प्राप्त कर सकते भूत भविष्य एवं वर्तमान तीनों कालमें इन्हीं दोनों रत्नश्वों के द्वारा मोक्ष मिला है, मिलेगा और मिल रहा १. है। इसके अतिरिक्त कोई और अन्य उपाय हो नहीं सकता । वह दो प्रकार का है श्रावक धर्म और मुनि धर्म । श्रादक धर्म तो कोई कठिन नहीं - सुगम है किन्तु योगियों का मुनि धर्म अत्यन्त कठोर है। थावक धर्म की ग्यारह प्रतिमाएं (श्रेणियां) होतो हैं जो भूत (जुमा) आदि सात प्रकारके व्यसनों से हीन है, बाठ मूल गुणों से युक्त हैं और प्रति स्वच्छ सम्यक दर्शन से परिपूर्ण
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है उसको दर्शन प्रतिमा कहते हैं और यही पहली है इसके बाद दूसरी व्रत प्रतिमा है। पांच अशुव्रत, तीन प्रकारके । गुण व्रत एवं चार शिक्षाप्रत इस तरह बारह व्रत है। जिसमें मन वचन एवं कामके द्वारा कृतकारितानुमोदन खोर प्रयत्नपूर्वक म जीवोंकी रक्षाको जाय वह हिसा नामका पहला धणुव्रत है। यह अहिंसा अणुक्त सम्पूर्ण जीवोंकी रक्षा और सम्पूर्ण व्रत
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