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पंच महावत अणुव्रत तेह, मूनि थावक पाल धर नेह । जे कपाय इन्द्रिय दृढ़ चोर, तिनको नाश कर तप जोर ।।१२६|| धर्म शकल ध्यावं अभ ध्यान, पारति रौद्र निकदन जान । मन वच त्रम दृढ़ धरै विराग, भवदुःख भोग अंगार त्याग ॥१२७॥ क्षमा ग्रादि दशलक्षण धर्म, इत्यादिक आचरण सुशर्म । मरण समाधि साध शुभ ध्यान, पावं अमरलोक प्रस्थान ||१२८।। सागर वृद्ध तहां सुख लहै, सपने मांहि दुःख नहि गहै। मार्दव भावसहित निज हिय, अर प्रार्जव परिणामहि कियं ॥१२॥ अति संतोषी सद अचार, मन्द कपाय चित्त अविकार । उत्तम पात्र सु दानहि देइ, भक्तिभाव मन में अधिकेइ ।।१३०।। ता फल भोगभूमि पद लहै. महा भोग अनुपम सुख गहै। पुण्यतनों फा इहि विधि सार, पावं थावकमुनि निरधार ।।१३।। कायकलेश विविध प्राचर, तप प्रज्ञान मद जे करें । ते पर नीच देवगति लहैं, व्यन्तर आदि अशुभता है ।।१३।। बह मायाधारी जगमाहि, वागी कामं तपत नहि काहि । पर दारसी दोग विचार, अशभ अंग मद सहित विचार ।। १३३।। मिथ्यामती राग कर अन्ध, मुढ़ कुशोली पाप प्रबन्ध । ते नर मर त्रिय वेद लहाय, होय कुरुष दुरगंधा पाय ।। १३४|| शद्धाचरण शील परधान, माया कौटिलता किय हान । हिये बिचार चतुर अति दक्ष, पूजा दान करत परतक्ष ||१३५।। इन्द्रिय अलप सुण्य सन्तोष, दर्शन ज्ञान अभूपण पोप । पुरुषवेद ते लहैं महान, भव भव माहि करें अपहान ।।१३६॥ काम अन्ध लम्पट परत्रिया, शीलहीन ब्रत बजित हिया । नीच धर्मरत है दुरधिया, मारग नीच प्रर्वतन क्रिया ॥१३७।। सो नरदेव नपं सक लहै, महानुःखको कारण यहै । काय फल इहि बहु परकार, देख्यौ प्रगट होत दुख भार ॥१३॥ जे पशु लादै भार अनन्त, जात बुतीरथ निर्दय वंत । ते मरि होय पंगुगति निद, तहां लहैं दुख दारुण वृन्द ।।१३।। जिन सिद्धांत दोष अति धरै, कुमत ग्रन्थकी वंदन करें। परनिंदा सुन हरर्षे अंग, विकथा वचन कहें मन रंग ।।१४०॥
वाले हैं वे धर्म करते हैं। इनके अतिरिक्त जो कि अपने हृदयमें सम्यक् दर्शनको हारकी तरह मानकर धारण किये रहते हैं, कानों में ज्ञानको कुण्डल मान कर ग्रहण किये हुए हैं मस्तकमें चारित्रको मुकुट (शिरो भूषण) मानकर वांधे हुए हैं, संसार, शरीर एवं भोगके विषय में संवेग का सेवन किया करते हैं, सदैव विशुद्ध पाचरणके लिए सद्भावनामों का चिन्तन करते रहते हैं, अहनिश (दिनरात) क्षमा आदि दश प्रकारके लक्षण बाले धर्मका पालन किया करते हैं, तथोक्त धर्मकी वृद्धि के लिये दसरों को भी धर्मका उपदेश किया करते हैं बे इन सब कार्योंसे तथा अन्यान्य शुभ प्राचरणोंके द्वारा महान् धर्मका उपार्जन करते हैं। पूर्वोक्त कमोंके करने वाले मुनि हों अथवा श्रावक सभी भव्यजीव शुभ ध्यामके द्वारा मर कर स्वर्गको प्राप्त हो जाते हैं। स्वर्ग सम्पूर्ण इन्द्रिय-सुखोंका समुद्र है। वहां दुःखका लेश भी नहीं है। पुण्यात्मा ही वहां रह सकते हैं । जो कि सम्यक दर्शमसे अलंकृत हैं वे बुद्धिमान् पुरुष नियमानुसार परम कल्प नामक स्वर्गों को प्राप्त करते हैं किन्तु व्यन्तरादि भवनत्रिक देवों में वे कदापि नहीं उत्पन्न होते जो अज्ञानी पुरुष अज्ञान तपस्याके द्वारा काय-क्लेश करते हैं वे व्यंतरादिक देवगतिको प्राप्तहो जाते हैं। जोकि स्वभावतः कोमल स्वभावी हैं, सन्तोषी हैं. सदाचारी परिणामी हैं, सदैव' मन्द कषायी हैं, सरल चित्त हैं, तथा जिनेन्द्र देव, गुरु, एवं धर्मात्माओंकी प्रार्थना करने वाले होते हैं, मथा और अन्यान्य शुभ प्राचरणोंसे अलंकृत रहते हैं वे उत्तम जीव पूण्योदयके कारण पार्यावर्त के किसी उच्च कुलमें राज्य लक्ष्मी इत्यादिके सुखोंसे युक्त मनुष्यगतिको प्राप्त करते हैं वे अपरिमित भोगोंको प्राप्त करने के लिये सुख सामग्रियोंसे परिपूर्ण भोग भूमि में जन्म ग्रहण करते हैं ।
जो कि माया पूर्ण काम-सेवनसे अतृप्त हैं विकारोत्पादक स्त्री-वेपके ग्रहण करने बाल हैं, मिथ्या दष्टि है. रामा शीतलतास हीन हैं एवं प्रज्ञानी हैं मरने पर स्त्री वेदके उदय होनसे स्त्री पर्यायको प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार जो स्त्रियां विशा चरण वाली होती हैं, मायानारी कुटिलतासे हीन होती हैं, विवेकशील, दान पूजा प्रादि शुभ कर्मों में नत्पर अल्प विषय सखसटी सत्ष्ट हो जाने वाली एवं दर्शनज्ञानसे युक्त होती हैं, वे ही स्त्रियां मर जाने के बाद बेद कर्मके उदय होने से पह करती हैं। जो अत्यन्त विशेष रूपसे कामापभोग में ही लगे रहते हैं, परस्त्रियों के पीछे पागल हुए फिरते है और सर्वदा (दिन-रात। काम क्रीडामें तल्लीन रहते हैं वे नपं सकोंक चिन्हसे युक्त होते हैं। जिन्होंने पशुओके ऊपर अत्यन्त अधिक बोझ लाद दिया है मार्ग में चलते हए अनेक जीवों को बिना देखे ही अपने पैरों से मार डाला है. कुतीर्थों में पाप कर्म करने के निमित्त भवन अनेक पापोंको कमाया है ये दया हीन शठ पुरुप मरने के बाद प्रांगोपांग कर्मक उदय होने से पंगु (लले) होते हैं। संसार