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कमल कनिका चहंदि पंग, घोडा
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( श्रनाहत मंत्र ) रवि हाटकवत रंग वा मस्तक सो है वृन्द, जैसे निर्मल पुरण चन्द्र फिर कह कमल ज ध्यानी लय बुजदल दक्षिन दे तब वह वर्षा अमृत होय, बहुरि कमल मुख राखे सोय अधिक ज्योति ताकी गाय बुद्धि न सके ताहि यरमाय विद्या जल निज तारन काज है यह मंत्र प्रतच्छ जहाज जो ध्यानी ध्यावे हि रोति ध्यान करत छह मास विलास जब वायर वीतें हि भांत, सब मानन्दमयी सो होय, प्रगट स्वयंभू जान विलास,
मध्ये कणिका
स्थान
मंत्र अनाहत राखे मन || ४१३ ।। ता मुखतं यमुत वरपई ध्यानी मुनि ताको निरखई ॥४१४॥ यहूरि उमार सिमिको मिटि अधिकार ||४१३|| तालु रन्ते फिरि निकसाय, जुग भ्रुवलता विराजं आय ||४१६ ।। सकल सुरापुर नावं घीस विश्व को दोष नी ।।४१७ अप चालको ने नागदमन समयोचित भने ।।४१८।। धूम शिखा मुखतं निकलाम प्रगट ध्यान को राम ॥४१॥ तब दीजं ज्याला को फांतता पीछे प्रगटे पदात तब देखे जिन मुख सास्यात ॥४२०|| पंचकल्याणक दरशी सोय प्रभा पुजको सूरजवान, भव्य कमल जाते सुख खान || ४२१ ।। निद्रा मोह तन किय नाश। भवसागरके पार पहुंच्च बैठे मुक्ति शिलापर कंच ||४२२ ॥
( इति अनाहूत मंत्र )
( मंत्र )
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प्रनमि मंत्र सुमिरो फिर पिस, ॐकार जो परम पवित्त परमेष्ठी सम इहिको जान, बीचक बीच तनं उनमान सकल सुरामुर पूजित पाय, चन्द्र रामान दियं मुखदाय ज्यौ चितं वा शुक्ल सरूप, कर्म निर्जरा व अनूप । जम्बु वरण जब जो ध्याही स्तवन ऋद्धिसिपाही
दुख दावानलको जो मेह. ज्ञानदीप पहुंचनको गेह ||४२३|| हृदय सुकंज कणिका रहै, स्वर व्यंजन वेष्ठित लहल है ||४२४|| महातत्व मनोरज नाम, कुम्भक ध्यान करो अभिराम || ४२२|| जो सिंदूर वरन मन घरं, सर्व जगत चित क्षोभित करें ॥४२६ ॥ जो कोइ चितं जल रंग, द्वेष तजे विद्यायल पंग ॥४२७॥
अरुम वरण सब सुख जान, ॐकार गुण कड़े बढान या समान जो नहि इष्ट जुग फलदाता इष्ट अनिष्ट ||४२८||
( ॐकार इति प्रवचन मंत्र )
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सुमिरे बिया त्रिभुवन सारद्धि सिद्धिकी है दातार for पित्त जाट स्थान, जो ध्यावेताको कल्यान
है प्रसन्न गंभीर बखाद, हिमकर व अमृतको खान ।।४२६॥ सकल कामना पूरं सोम, पोहन मोहन यायें होय ॥eoit ( ह्रीं इति सिद्धि मन्त्र )
सुधासिंधु तं निकसी भ्राय, चन्द्र रेख तम तास प्रदाय रहे सह मालके ठौर, जो ध्यावे ध्यानी शिरमौर ॥। ४३१ ।। अमृत बरसाये हुं और जन्म वनों ज्वर जो नाशक धनमाल, परम लालबत सुखी रसाल ||४३२||
मैं
कर्म
प्रदेश नहीं हैं; क्योंकि वह स्वयं एक प्रदेशी है । इसीलिए काल को छोड़कर शेष पांच द्रव्य अस्ति काय कहे गये हैं। इन पांचोंमें छठें काल को मिला देने से जिन मत के छः द्रव्य पूर्ण हो जाते हैं । द्रव्यों की इतनी ही संख्या निश्चित की गयी है। जितने श्राकाश क्षेत्रको एक पुद्गल परमाणु व्याप्त कर ले उतने ही स्थानको एक प्रदेश कहते हैं । संसारी जीवों कर्म जिस रागादि रूप मलिन परिणामसे आते हैं उसको परिणाम भावास्तव कहा जता है । बुरे परिणाम वाले जोवके जो कारणों द्वारा पुद्गलोंका कर्मरूप में आता है वह द्रव्यासव है । आवके मिध्यात्व प्रादि कारण विस्तार पूर्वक पहले के अनुपेक्षा प्रकरण में हम कह श्राये हैं । इनके भेद और तत्वकी वहीं समझ लेना चाहिए जिस राग द्वेष रूप धात्माके परिणामसे कर्मजा वाला है वह परिणाम भाव बन्ध हैं भावबन्ध ही के कारण जीव श्रीर कर्मका परस्पर बंध जाना द्रव्यवन्ध है । वह द्रव्य बन्ध प्रकृति स्थिति, अनुराग और प्रदेश
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४६४।