________________
सारा प्रदेश मन
प्रडिल्ल परमाण अविभाग एकसौ जानिये । एकौ जितौ श्राकाश प्रदेश बखानिये ।। कालाणू इक जहाँ धर्म अधर्म है। पुद्गल जीव प्रदेश सबै लहि शर्म है ।।२७।।
शिष्य प्रश्न धर्म अधर्म अरु काल जीव जुत चार ये । नभ दिक दश हि सबै कही किह बांटये ।। हैं इक हेत अरूपी चारों धरि लये । पुद्गल मुगति बंत अनते किम भये ।।२।।
उत्तर
दोहा
अथा एक मन्दिर विर्ष, बहुतक दीप प्रकाश । बाधा कछु व्याग नहीं, लहै सुजस प्रबकाश ।।२६।। तसे ही परदेश नभ, पूगल खंध बसाय । ज्यों अनन्त त्यों एक है, बाधा लहै न काय ।।३।।
प्रास्रव तत्व वर्णन
दोहा जो कर्मनको यात्रवे, प्रास्रव कहिये ताहि । भाव दरव दो भेद हैं, कहे जिनागम मांहि ।।३।।
चौपाई मिथ्या प्रवत जोग कषाय, ए सत्तावन आस्रव प्राय । ऐसें भाव जीव जब करे, सो भावास्रव कर्मनि धरै ।।३२॥ तिनही भावनि कर उपाय, पुदगल जीव कर्म परिणाय । बंध्यौ तहाँ प्रातमा राम, सो है भाव बँध जग ताम ॥३३॥ जो चेतम परदेश जु कहै, तिनपर कर्म पुराने लहै । नुतन कर्म बंध बहु होय, द्रव्यबंध यह जानो सोय ॥३४॥ प्रकृतिबंध थितिबंध जु धार, अरु अनुभाग प्रदेश विचार । प्रकृति प्रदेश जोग उतपन, थिति अनुभाग कपायनि जुत ।। ३५।।
बन्ध तत्व का वर्णन-प्रकृति वंध निरूपण प्रथमहि ज्ञानावरणी कर्म, मति आदिकपन ज्ञान जु पर्म । आछादै चेतन गुण सदा, जने वस्त्र ढाकिये कदा ।।३६।। दरशन बरण दूसरी जान, नव प्रकृतिनि सो है थिति थान । तितकै रोकै कारज सब, जैसे द्वारपाल नप तब ।। ३७।।. कम वेदनी तृतीय बखान, खडग धार मधु लिप्त सु जान । सरसों वत सो मुख्य हि करै, मेरू प्रमाण दःख अनसरै ।।३।। मोहन कर्म चतुर्थम लस, आठवीस प्रकृतिनि कर बस । मदिरा बत ताको निरधार, दरशन चरण न हू है सार ।।३।।
कुरूप और सुख हीन होते हैं। इसी तरह दूसरों के दास (नोकर) दीन, दुर्बुद्धि, निन्दनीय पाप कर्मों में ततार एवं कुशास्त्रों के अभ्यास करनेवाले भी पूर्व पापोदय के ही कारण होते हैं। यह सब पाप का ही फल है। ऐरो पापी परलोक में अत्यन्त उग्र क्लेशों को भोगते हैं। ये ही भयंकर दु:खों से व्याप्त सातों नरकों में जन्म ग्रहण करते हैं, जहां सुखका लेश मात्र भी नहीं ऐसो दुःखोंकी खान तियञ्च योनिमें उत्पन्न होते हैं। चण्डाल कुल एवं म्लेच्छ जाति आदिको भी ऐसे ही पापी लोग पाया करते हैं । अघालीक मध्यलोक एवं ऊर्द्धलोक में जो कुछ उत्कृष्ट दुःख है क्लेश है दर्गति है वे सब पाप के उदय होने से पापियों को ही मिलते हैं। इसीलिये सुख को चाहने वाले पापों के बुरे फलों को जानकर प्राण निकल जाने पर भी पाप की और नहीं प्रवृत्त होते । इस प्रकार अरहन्त प्रभु भव्य जीवोंके पाप को महा भयानक फलों को सुना कर पुण्य के कारणों को कहने में प्रवृत्त हुए।