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मावास्य तोसाक्षर वर्ण ॥। ४८२ ॥ ( जोग्गे मगे सच्चे भू दे भन्ने भविस्सेक क्ले जिण पारिस् स्वाहा ॐ ह्रीं स्वर्ह नमो ममोहंताणं ही नमः ।)
अथ वार मन्त्रों का विवरण
अपराजित जप सादिवार (णमो परहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो धाइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो
नाऐसव्यवाहून)
सोमवार पीठक्षार धार (प्रसिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यां नमः ) मंगलवार पडक्षर जान (अरहंत सिद्ध)
बुद्धवार पंचाक्षर ध्यान ॥ ४८३|| साउसा)
चतुरवर गुरुवार जपे (अरहंत) (ि
अक्षर
शनि को एकाक्षर परमान (ॐ) यह पदस्थ वरण शुभ ध्यान || ४८४ ॥
दोहा
मूंगा मोती हेम मणि
रूपा फत्र गुथि सूत कपूर वसु भेद मिलि अष्टोत्तर शत जूत ।।४८२ ।। मध्यम तरजनि नामिका, तप बंगुरन जब वास अंगुठासी जयमाल रुचि, गुन एक एक बहू वास ।।४६६।।
अथ रूपस्थ ध्यान वर्णन
चौपाई
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और देवस नाही काज हैं देवाधिदेव जिनराज ॥१४८७॥ अतिशय महा तीस धरू चार सो है प्रातिहार्य वसु सार ||४०८ श्री प्रभावि चुवीस महंत, गुण वरणत घावे नहि भ्रन्त ॥ ४८६ ॥ ध्यान करन उनहीसो जाय, वामें कछु नहि संशय थाय ॥२४१०||
अव रूपस्य ध्यान तुम सुनी जा प्रसाद जिनदेवहि गुनी दोष घठारह रहित जिनेश, गुण छपालीग संयुक्त महेश (घ) नंत चतुष्टयको नहि देव, करें शतेन्द्र वास पद सेव समोशरण की ऋद्धि समेत जो इनिको चितं घर
त
दोहा
जब न टरं चित वह रूप, तब शिवपद है शरण अनूप । जो जगमें नर करतो यह रूपस्य अनूप गुण, जिन सम भातम ध्यान कर याको अभ्यास
काम पा ताही के सम नाम ||४६१ ।। मुनि, पाव पद निर्वान || ४६२॥
अन्तराय कर्म भी कोष रक्षक (खजान्ची) के समान दान लाभादि पांच को सदेव विघ्न उपस्थित किया करता है। इनके वेदनीय अतरिक्त और भी अन्य कर्मों को जान लेना चाहिये । वे स्वभाव जीवोंके श्रानेके कारण हैं। दर्शनावरण, ज्ञानावरण, एवं अन्तराय इन चार कमोंकी उच्चत्तम स्थिति तीस फोटाकोड़ी सागरकी है। मोहनीय कर्मकी उच्चतम स्थिति सत्तर बोड़ाकोड़ी सावरकी है। इसी प्रकार नाम कर्म एवं गोत्र कर्मकी स्थिति बीस कोटाकोड़ी सागरकी है। शायु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति तीस सागरकी है-- जिनेन्द्र देवने इसी प्रकार आठ कर्मोंकी अत्यन्त उत्कृष्ट स्थितिको बतलाया है। वेदनीय कर्मको जघन्य स्थिति बाहर मुहूर्तकी है। नाम एवं गोत्र कर्मकी माऊ मुहूर्त तथा अन्य शेष पांच कर्मों की यन्तमुहूर्त जघन्य स्थिति है। स
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