________________
दोहा चौरासी लख जाति में, मात पक्ष जिय जंत । पंच परावर्तन धरे, भटकै काल मनन्त 11५०९।।
योग वर्णन
चौपाई करन तीन मद पाठ प्रकार, पाचौं इन्द्रिय विकथा चार । सात व्यसन रु चार कपाय, पंच मिथ्यात जहां सरसाय ॥५१०॥ यह छत्तीस जोग समुदाय, इनि मिलि प्राणी कर्म बंधाय। आवे जाय तहां सब जीव, इतर निगोदादिक जु सदीव ।।५११।।
कुल कोटि वर्णन पथिवी कायिक वाइस जान, जलकायिक पुन सात वखान । तेजकाय तह तीन म भनी, वायु सात लख कोहि गनी ।।५१२॥ बनस्पती प्रवाइस होय, एकेन्द्रिः सय सड़सट जोय । द्वेन्द्रिय पुनि सात गनेह, ते इन्द्रिय तह आठ भनेह ।।५.१३।। चौइन्द्रिय नव कोडि प्रतक्ष, सब चौबीस बिकलत्रय रक्ष । अब पंच इंद्रियको सून हाल, है तिरजंच साड़ तेताल ।।५१४|| जलचर साढ़ेबारा लाख, पुनिनभचर सब बारह भाख । थलचर को दो भेद वखान, चतुपद आदि दशहि परवना ।।५१५।। सरी सर्प नव कोड़ि जु कहैं, इमि तिरजंच सबै सरदहै। देबन कुल छट बीस ज होय, नारकगति पच्चीस हि सोय ।।५१६|| चौदह मनुष्य तनै अवलोय, सकल जीव इकठे सब होय । इकसय लख गनिये कुल कोडि, साढ़निन्यानव ऊपर जोडि ॥५१७॥
(१९६५००००००००००)२
दोहा पिता पक्ष कुल कोड़ि यह, चतुरविश थानेव । अब जिय गत्यागत सुनौ, दंडक चौबीसेव ||५१८।।
अथ चौबीस दण्डक प्ररूपण
संवर है। योगी जन जिन महावतादि उत्तम ध्यानोंसे सम्पूर्ण कर्मानाबोंका निरोध करते हैं उनको सुखदायक द्रव्य संवर कहते हैं।
संबरके कारण महाव्रतोंके द्वारा परिषहोंके जोतनेके विषयमें पहले कहा जा चुका है इससे पुन: पिष्टपेषण करना ठीक नहीं। जिज्ञासुनोंको वहींसे जान लेना चाहिए। सविपाक और अविपाकके भेदसे जीवोंको निर्जरा दो प्रकार की होती है। इन दोनों में से मुनीश्वरोंकी अविपाक और अन्य सब सांसारिक जीवोंको सविपाक निर्जरा होती है। इसके पूर्व भी निर्जराका वर्णन
--- - -- ----- - - - - -- -.. १. शरीरके भेदको कारणभूत नो कर्मवरणाके भेदको कुल कहते है।
बावीस सत्त तितिण य सत्त य कुलकोडिसगहस्साई । गोया पुढविदमागणि वाउमायाण परिसंखा ॥११३॥ कोडिसप सब सहस्सा रात्तद्वणव य अटवीसाई । देविय तेइंदिय चरिदिय हरिद कायाणं ॥११४॥ अद्वत्तेरस वारस दसयं कुल कोडिसदसह माई । जलचरपकिब चउप्पय उरपरिसप्पमु गाव होति ।।११।। छप्पं चाधियवीसं . वारसकुलकोडिरावसहस्साई । सुरणेरइथसाराणं जहाकम होति गयाणि ॥११६||
एया य कोडिकोशी सत्ताणउदीय सदसहम्साई । १ष्णं कोरिसहम्सा सवंगीणं कुलाणं य ।।११७|| जीवकाण्ड
२. कुल कोटियोंकी संख्याके विषय में अन्य शास्त्रोंमें दो प्रकारका उल्लेख मिलता है। गोम्मटसार जीवकांडमें १६७५०००००००००० संख्या बतलाई है। गोम्मटसारके गाथा ऊपर उद्धत किये जा चुके है। परन्तु कविवर द्यानतरायजी ने अपने घरचा शतक ग्रन्थ में कुल कोटियोंका साम00000000००० वतलाया है। यहां ग्रन्थकतनि भी उसी आधार पर उक्त सध्या का निरूपण किया है। द्यानतरावजी का कवित्त यन है पध्वीकाय बीस दोय जल सात तेज तीनि, या सात तरुबीस आयपत्मानिये । बे ते चउ इन्द्रो सात आठ नव खग वार. जलचर साखानी दस जानिये ।। सरीसृप नव नारको पचीस नर चौथ, देवता बीस कुल कारि मानिये । दोय कोराकोी माहि आध लाव काशिनी निहारिक दयास भाव आनिमे ॥३२॥--चरचाचातक ।
गोम्मटसार में मनुष्योंकी १२ लाख और यहाँ १४ लाख बतलाई है, इसलिए दो लासका अन्तर दोनों निरूपणोंमें पड़ता है।