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अथ रूपातीत ध्यान वर्णन
चौपाई धर्म रहिन प्राणी संसार, जपं अनेक मंत्र निरधार। सिद्ध साध्य हैं और सुसाध्य, प्रारिय सहित चतुर आराध्य ।।४६३।। थंमन वशीकरण प्रवदात, चेटक नाटक वह उपपात । सात वर्ण सिद्धि मुनि जोय, काटे विमल मंत्र अवलोय ॥४६४।। सकल सिद्धि इनहीके ध्यान, अष्ट सिद्धि नव निद्धि वखान। ए संसार बढ़ावन सबै, इनिहीत शिव मारग दवे ॥४६५।। मनकी चंचलताको रोध, उपजाये दूर ध्यान विरोध । तात किमपि मंत्र वरणए, मनसा रोकनको परिणये ।।४६६॥ प्रातम हितकारी जो ध्यान, अब सुन ताको करी बखान । सिद्ध रूप को चितवन करो, तात सकल कर्म निरजरी ।।४६७॥ है अधिकार चरम रस छाम, काय बिनाश सहज बिसराम । सदा अनाकल परम रमेय, अनरूपी अरु अजपा ध्येय ॥४६॥ तीन भुबन में रहै रामाय, ज्ञान दृष्टि विन लख्यो न जाय। बिन शरीर है पुरुषाकार, किचित ऊन चरम तन धार ।।४६६।। जो कोई जियमें करै विचार, अनरूपी को पुरुषाकार । ता संवोधन गुरु कहि कथा, सिद्धि द्वारमें वरनी जथा ।।५००।। सो सिद्धन सम प्रातम रूप, ध्यावे दुविधा द्वार अनूप । रूपातीत ध्यान यह नाम, जो लेजाय मुक्ति के धाम ।।५०१॥
दोहा
गग रहित इन्द्रिय दमन, सकल विभंग उड़ाय । जीव तनों विधाम यह, रूपातीत कहाय ||५०२॥
इति ध्यान निरूपणम्।
'प्रत्यय वर्णन पंच मिश्यात प्रथम एकांत, विनय दुतिय विपरीत त्रिसंत। चौथौ है मंशय मिथ्यात, प्रज्ञान पंचमी सुनहो भ्रात 11५०३।। बारह अवत हैं दुखदाय, ताके नाम सुनौ समुदाय । पांचों थावर वसहि विरोध, इन्द्रिय पांचों मन नहि रोध ।।५०४|| पंद्रह जोग पनीस कषाय, सब संतावन प्रत्यय थाय । जबलौ इनमें रहै ज जीव, पाव नहीं मुक्ति पथ सीव ।।५०५।।
अथ जाति स्थान*
लख चौरासी जोनी सबै, ताको भेद कहीं कछु सबै । पृथवी वायु अगनि जल चार, इतर निगोद नित्य अवधार ||५७६॥ 1 षट थोक बयालिस लक्ष, सात सात जानों परतक्ष । बनस्पति' प्रत्येक दशान, विकलत्रय पट लक्ष बखान ।।५०७।। देव नारकी अरु तिरजेच, चार बार मिली बारह संच । मनुष जोनि है चौदह लाख, सब चौरासी मिति यह भाख ।।५०८।
कर्मोको मध्यम स्थिति कई एक प्रकार की है और प्रमाण भी उनका माध्यम ही है । अशुभ कर्मोका अनुराग निम्ब, काजी, विष
और हलाहल ये चार प्रकारका है। शुभ कर्मोका अनुभाग गुड़, खांड, मिश्री और अमत ये चार प्रकारका है। प्रतिक्षण उत्पन्न होने वाले सम्पूर्ण कर्मों का अनुभाग अनेक प्रकारका है और सांसारिक जीवोंको क्षण-क्षण सख दुःख प्रदान करता रहता है। सांसारिक जीवांके सम्पूर्ण प्रात्म-प्रदेशों में अनंतानन्त सूक्ष्म कर्म परमाण सब जहां परस्पर मिलकर एक हो जाय उन कर्म परमाणों के वन्धको प्रदेश बन्ध कहते हैं। इस प्रदेश बन्धमें दुःख ही दुःख भरे पड़ है । वह दुःखोंका समुद्र ही है। इन चार प्रकारके बन्धोंको अपना बैरी समझ कर बुद्धिमानोंको उचित है कि दर्शनजान चारित्र एवं तपरूपी बाणों से नष्ट कर डालें। इन्हें सम्पूर्ण दुःखोंका मुल कारण समझना चाहिये । राग द्वेषहीन होकर जो कि चैतन्य परिणाम कर्मोके आस्रव को रोकने वाला है वह परिणाम भाव
--- --- - --- - ----- -- - -- - --- fणस्चिदरमादुसत्त व नरुदस विलिदिएमु वेव । सुरणियतिरिय चउरो चोद्दल मणुए सदसहस्सा ।।८६||-जीवकाण्ड ।
नित्य निगोद, इसर निगोद, पृथिवी, जल, तेन और वायुकाविको प्रत्येक को सात सात लाख, वनस्पतिकारको दश लाण, डीन्द्रिय और नरिन्द्रियम प्रत्येककी दो दो लाख, देव नारकी और तियंचों में प्रत्येकी चार चार लास तथा मनृपोंकी १४ लाख योनिया होती हैं। सब मिलाकर ८४ लाख योनियां होती है।
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