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अनरथ सकल जगत में जेह, हालाहल विष जान तेह । इनको जब जिय धोय बहावं, अन्तरात्म तब प्रगट कहावै ॥२७६।। कर्म हतनको उद्यम कर, रागद्वेष इन्द्रिय परिहरै । सिद्ध समान ध्यान तन धार, प्राभ्यन्तर निर्मल कर सार ॥२७७।। पातम द्रव्य देह कर भिन्न, जान हि बिध भेद रवन्न । जथा कसोटी सोने कसै, तसे अन्तरातमा लस ।।२७८|| सुख सरवारथसिद्धि प्रजंत, फिर पावं पद थी परहंत । अन्तरातमा दृढ़ जब होय, तब परमातम को अबलोय ।।२७६।।
परमात्माका लक्षण परमात्मा दो दिय जेहासका पुनि निकल नेह। दिव्य देह सो सकल बखान, निष्कल देह विवर्जित जान ॥२८॥
सकल परमात्माका लक्षण वाति कर्म जिन कीनं चूर, नव केवललब्धी भरपूर । नर सुर सव सेवे तिन पांय, अरु ध्यावे गुण चित्त लगाय ॥२६१।। सब हित कहैं धर्म उपदेश, भव्यनिको तारत परमेश । दिव्यौदारिक तन थिर थाय, अरु अतिशय मंडित है प्राय ॥२२॥ घामत वरपावत सोय, भव्यनको सुख करता होय । ताकर स्वर्ग मुक्ति फल लहै, प्रथम सकल परमातम कहै ॥२८३।।
निष्कल परमात्मा का लक्षण प्रप्टकर्म निरभक्त प्रधान, मुरतिहीन ज्ञान गुण खान । तीन जगत दिर, निवर्म सदा, महा अष्टगुण भुषित तदा ॥२८४|| तीनलोकपति प्रनमैं पाय, मुक्तितनों कारण उर लाय । जग चूडामणि निर्मल नाम, निष्कल परमातम मुखधाम ।।२८॥
बहिरात्मा मादि का गुणस्थानों में विभाग अव बहिरातम उतकिठ जान, गुणस्थान प्रनमौ तिहि थान । मध्यम लहै दुतिय गुणथान, अरु जघन्य तोजी परमान ।।२८६।। जो जघन्य अन्तर मातमा, गणस्थान चोथौ विहरमा । मध्यको सालम लौ वास, द्वादश लौं उत्कृष्टी भास ॥२७॥ परमातम गणथानक दोय, तेरम चौदम जानो सोय । गुणस्थान तन शिबपद रमै, परम सिद्ध तिनके पद नमैं ।।२८८॥
गणस्थानों का समय निरूपण
दोहा अष्टमते द्वादशम लौं, पर ती परवान । अन्तमुहरत तिथि सबै, इन पाठों गुणथान ।।२८६॥ चतुरथ सागर तीस त्रय, पंचम तेरम सृष्ट । कोटिपूर्व वसु वर्ष-घट, प्रथम अनादि अनिष्ट ॥२६॥ सासादन गुणथानकी, षट पावलि परवान । पंच लघु क्षर जानिये, तिथि चौदम गुणथान ॥२६॥
अथ जीवसमास निरूपण
दोहा सबै जीव संसार में, चौदह भेद प्रमान । ताकौं कछ विवरण लिखौं, भाख्यौ श्री भगवान् ॥२६२ ।।
की भी कमी हो जाती है । इसी प्रकार ते इन्द्रिय जीवों के सात प्राण (नेत्र को भी छोड़ देने से होते हैं। दो इन्द्रिय जीवों के नासा (नाक) हीन छः प्राण और एकेन्द्रिय जीवों के तो बचन एवं जिह्वा दो इन्द्रियों के हीन हो जाने से चार हो प्राण कहे गये हैं । अपर्याप्त जीवोंके अनेक प्राण हैं। इस बात को मागम से जान लेना चाहिये । इस जीव को बुद्धिमानों ने निश्चय तप के द्वारा उपयोगमयी, चेतना स्वरूप, कर्म, नो कर्म, बन्ध मोक्षका अकर्ता, असंख्यात प्रदेशी, अमूर्त, सिद्ध समान प्रौर परद्रव्यसे रहित कहा है। प्रशुद्ध निश्चय नयके द्वारा यही जीव रागादि भाव कर्मोका कर्ता और आत्म ज्ञान से हीन होकर कर्म फलोंका भोक्ता है। व्यवहार नयके द्वारा यह जीव प्रात्मा ध्यानसे रहित होकर कर्म एवं शरीरादि नौ कर्मों का कर्ता है। यही सांसारिक जीव
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