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सन्मूच्र्छन थल जल नभ जान, सैनी और असैनी ठान । परजापते अपरजापते, अरु अलब्धि हैं ते परमिते ।।३१४॥ दोय थोक ये तोस बखान, गर्भज सन्मूच्र्छनके जान । भोगभूमिया दोय प्रकार, थलचर नभचर गर्भज धार ॥३१॥ परजापत अप्रजापत कहै, चार मिले सब चौतिस लहै । अब समास नव मानुष गनी, भोगभूमिया प्रथमहि भनौ ।।३१।। दुतिय कुभोग भूमि नर जोय, म्लेच्छ खंडके तीजा होय । परजापत तीनहि पहिचान, अप्रजापति को कही प्रमान ||३१७।। प्रारजखंड मनुष परमिते, अलधि सहित अय परजापते। एही नव विधि मानुष जान, सब मिलि अंठानवहि बखान ॥३१॥
दोहा अब समास सुन अवर विधि, भाषे गोमटसार । तिनहि भेद सब बरनहू, षट उत्तर सय चार ॥३१६॥
सोरठा पशु इकसै तेईस, नरकमाहि अंठानयं । नर तेईस विधि दीस, शतक वहत्तर देवगति ।।३२०॥
पशुगतिके १२३ भेदों का वर्णन
चौपाई
पृथ्वीमा भेद बालान कोगन पी वार्षिक परजान । पारी पावक पवन जु होय, वनस्पति साधारण दोय ॥३२॥ नित्य निगोद इतर सो सान, सर्व भए सातौं परवान । सूक्षम थूल चतुर्दश एह, अब प्रत्येक वनस्पति केह ॥३२॥ सुप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित दोय, ताके भेद सुनो बुध लोय । दूब बेल अरु छोटो वृक्ष, तस्बर और कंद परतक्ष ॥३२३॥ पंच भेद सु प्रतिष्ठ बखान, यही रीत अप्रतिष्ठित सु जान । यहै प्रत्येक वनस्पति बास, सब भये दश भेद समान ॥३४
दोहा
जब इन मांहि निगोद है, तब सुप्रतिष्ठित जान । जाहि निगोद न पाइये, सो अप्रतिष्ठ कहान ।।३२५॥ जाति दशौं परतेककी, वे चौदह चौवीस । परज अपर्ज प्रलब्धिके, सबै समान कहीस ॥३२६।।
चौपाई
पर्ज अपर्ज अलब्ध समान, चौदा अरु चौबीस बखान | ए नव भेद सबै परनए, बहतर मिलि इक्यासी भए ॥३२७॥ करमभूमि तिरजंच विख्यात, गर्भज संमर्छन दो जात । गर्भज परज अपर्ज प्रवीन, अलबध दो सन्मुर्छन तीन ॥३२॥ सैनी पंच असैनी पंच, दसौं भेद जलचर तिरजच । दसौं भेद थलचर पशुकाय, दसौं व्योमचर उड़ें सुभाय ॥३२॥ ए सब तीस कर्म भू ठौर, भोगभूमि प्रयके अन्न और । थलचर नभत्र र सौ छह ठये, परज अपर्ज दुवादश भये ॥३३०।। सबहि बियालिस कहै विचार, वे इक्यासी प्रथमहि धार । इकस ऊपर तेइस जान, पशुगति में सब यह प्रमान ॥३३॥
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जीवके स्वभाव गुण केवल ज्ञानादि हैं और विभाव-गुणमति ज्ञानादि हैं। तथा इस जीवके नर, नारक एवं देवादि पर्याय विभाव पर्याय और शरण हीन शुद्ध प्रदेश खभाव पर्याय हैं। पूर्व शरीरके विनाश एवं अन्य शरीरकी उत्पत्ति-कालमें एक ही यात्मा है अतएव उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य तीन भेद कहा गया है। इस प्रकार जिनेन्द्रदेव महावीर प्रभुने अनेक नये भेदोंके द्वारा गणघर गौतमकी दर्शन विशुद्धिके लिये जीव तत्वका उपदेश किया। इसके बाद जिनेन्द्र प्रभुने पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं कालके पाँच भेद युक्त अजीष तत्त्वका व्याख्यान आरम्भ किया। रूप, रस, गन्ध स्पर्शवाले पुदगल द्रव्य अनन्त है और पूरण गलन
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