________________
चौपाई जगमें जिये जीव एक लौ, प्रथम भेद यह जानौ भलो । थावर अरु बस कहै बलान, द्वितिय भेद यह जान प्रवान ॥२६३।। थावर अरु बिकलत्रय होय, पंचेन्द्रीय तृतीय बह जोय । चारौं गति में गलं सदीव, नौथो भेद जानिये जीव ।।२९४।। एकेन्द्रिय दो इन्द्रिय जान, तेहिन्द्रय चतुरिन्द्रिय मान । पंचेन्द्रिय हैं जग विख्यात, पंचम भेद सुनौ यह भ्रात ।।१५।। थावर पंच एक त्रस जान, पटकायी यह भेद बखान । थाबर पच विकल इक सोय, पन्द्रिय जुल सानो होय |२६|| धावर पत्र विकल इक ठाठ, सैनी और असनी पाठ । पाचौं थावर विकल सु तीन, पंचेन्द्रिय जुत नब गन लीन ।।१७।। पृथ्वी चौक वनस्पति दोय, प्रत्येकहि साधारण सोय । तीन विकल पंचेन्द्रिय एक, एक दश भेद कहे जग टेक ।।२।। थाबर पंच सूक्ष्म अरु थूल, घस जुत एक एकादश मूल । सो दश थावर विकल जु एक, पंचेन्द्रिय मिल द्वादश भेक ॥२९॥ वे ही विधि थावर दश जान, अर विकलत्रय एक बखान । संज्ञि असंजि पंचन्द्रिय सोय, सेरह भेद प्रगट ये होय ॥३०॥ एकेन्द्रिय सूक्ष्म अरु थूल, तीन विकल पंचेन्द्रिय मूल । संशी असंज्ञि जुत सब सात, परजापत अप्रजापत गात ।।३०१॥ यह विधि चौदह भेद प्रमान, सब संक्षेप कहै गुणथान । और भेद अंव सूनिये मित्त, जिम नाश संशय भवि चित्त ।।३०२।।
दोहा
पाँचो थावर विकलत्रय, अरु निगोद द्वय जान । नर सुर नारक पशु सहित, चौदह भूत जुठान ॥३०३।।
चौपाई
अब उनबीस जु सुनहु समास, पश्वी चौक निगोटद भास । ये छह भेद सूक्ष्म अरु थुल, ताके बारह विध गुण मूल ।।३०४॥ वनस्पति द्वै भेद प्रमान, सूप्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जान । विकलत्रय भापहि विध तीन, पंचेन्द्रिय संमनो मनहीन ॥३०॥ ए उनीस परजापत जान, फिर अपरजापत जु बखान । कहै अलविध प्रजापत सोय, सब समास संतावान जोय ॥३०६॥
दोहा अब समास अठानवे कहौं जथा प्रति देख । वियालीस थावर सबै, मुर दो नारक लेख ।।३०७।। विकलत्रय नव भेद गन, नव' मानुष परजंत । तिरचहि चौंतीस भन, लिस्यौ तिनहि विरतंत ॥३०८।।
चौपाई पृथ्वी चौक निगोद जु दोय, सूक्षम बादर बारह होय । वनस्पति द्वै भेद खान, सप्रतिष्ति अप्रतिष्ठिन जान ।।३०६।। चौदा परजापतये लहै, अप्रजापत चौदा ही कहै। चौदा अनधि प्रजापति एह, थावर कहै वियालिस तेह ॥३१०॥ स्वर्ग नारको दोय प्रकार, प्रजापते अप्रजापत सार है इन्द्रिय तेइन्द्रिय जान, चतुरिन्द्रिय विकलत्रय मान ||३११।। प्रजापते अप्रजापत सोय, जलधि प्रजापत । नव' होय । अब तिरजंच सूनो चौतीस, पंचेन्द्रिय में कहै जिनीश ।।३१२॥ प्रारजखण्डी गर्भज तीन, जल थल नभचर ए सुन लीन । सैनी और प्रसनी तेह, परजापत अप्रजापत एह ॥३१३।।
अपने इन्द्रियों द्वारा ठगे जाने पर अद्भुत एवं उपचरित व्यबहार नयसे घट-वस्त्र प्रमृति - वस्तुप्रोंका निर्माता है । यह प्र. सनुद्घातके बिना संकोच एवं बिस्तार शक्तिसे प्राप्त शरीरके बराबर हैं। दीपकसे इसका तुलना की जा सकती है । वेदना, कषाय, वैक्रयिक, मारणान्तिक, तैजस, आहारक केबलि समुद्घात ये सात प्रकारके समुद्घात कहे गये हैं। इनमें से तीन तेजस, पाहारक एवं वलि समुद्धात योगियों के होते हैं और शेष चार समुद्घात सम्पूर्ण सांसारिक जीवोंके हो सकते हैं। इस
४८८