________________
तुम नोभी प्रभुह अधिकार, तीन लोकके राज्य हि धार। तुम रागी उर परम विवेक, मुक्ति वधको लागी टेक 11१८४॥ जीत पात्र भए जीत कर्म, तीन जगत में जोधा पम । तीन जगत लक्ष्मीपति सेब, ग्रा अतिशय अलंकृत देव ।।१८॥ कीरति बेलि बड़ी तुम तनी, छाई जग मंडप में घनी। और कदेय जसहि को चाहि, तुम निरीक्ष सेवं सुर पाहि ॥१६॥ कलपतरू वर चित्रावेल, कामधेनु चितामणि खेल । एसब एक जनम सुखदाय, तुम सेवा सी भवदुख जाय ॥१८७।। गाज धन्य वासर यह भयो, जीवन सफल दरश जिन लयौ । आज पाय हम भये पवित्त, प्रभु यात्रा कोनी इक चित्त ॥१८॥ मफल हस्त हमर अब भये, तुमरे चरण कमलको नये । नेत्र सफल मान हम आज, दरशे पाप जबहि जिनराज ॥१६॥ अरु पवित्र भयो मेरो गात, तुम चरणाम्बुज सेवत तात । वाणी सफल भई मुहि अाज, तुम गुण भाषे जलधि जहाज ॥१९॥ मेरो मन सफलीकृत भयो, प्रभु की भक्ति हृदय भर लयौ । चार ज्ञान धारी तुम राय, तुम गुण पार न अन्त लहाय ।।१९१॥ हमरी शक्ति उनहित लेश, तुमरी भक्ति करत उपदेश । जैसे साम्रकली परभाव, कोकिल शब्द करै कहराव ॥१६।।
गीतिका छन्द
नौ वीर जिनेश अन्तिम, सकल मंगल कारने । नौं सन्मति करी शुभमति, बर्धमान प्रनामनै ।। नमौं तीन जगत्र नायक, परम स्वामि बखानिये। नौं अतिशय दिव्य तनमय, पाप मेरे हानिये ।।१६।। नमों तारन तरन जिनवर, नमौं गुन वारिधि सही। नौं विश्व बिभूनि मण्डित, नौं गर सेवत मही॥ नमौं परमातम विराजत, नमी लोकोत्तम सदा । नमौं केवलज्ञान लक्ष्मी, अंग भूषित है तदा ।।१९४॥
बोहा
यह विधि बहु अस्तुति करी, नमौं भक्ति उर लाय । तुम प्रसाद प्रभ पाइयो, धर्म सकल सुखदाय ॥१६॥ काल लवधि नियड़ी नहीं, भवगत लह्यौ न अन्त । तौलौ प्रभु मोहि दीजिये, अपनी भगति अनन्त ।।१६६।। शाची रत्न पांचों वरण, निज कर चुटकी चूर । भक्ति सहित प्रभुकै निकट, चौक बिचित्रहि पूर ।।१९७॥ तहं सुरेश पूजा विविध, प्रारम्भी हरषाय | अष्ट द्रव्य शंजुक्त कर, जिन चरनन चित लाय ।।१६८।।
पूजाष्टक त्रिभंगी छन्द
कंचनमय भारी रतननि जारी, क्षीर समुद्र जन सुख भरियं । शीतल हिमकारं पूजित सार, बारत अनुपम धार त्रयं ।। जना सरराज हर्ष : समाज, जिनवर चरणं कमल जुमं । जग दुःख निवारं सब सुख कार्र, दायक सो शिवसख परमं ॥१९॥
जलम् । केशर करपुरं अगरं तगर, सि मलयागिर सुरभि शुभ। सुरगन्ध मनोगं उपमा जोगं, तास विलेपन करत प्रभा
पूजत सुरराज० ॥२००|| चन्दनम् ।
थीं जो सिद्ध पुरुषों के पाठ गुण के समान जान पड़ती थी उसी पीठ पर भी एक तीसरा रत्न पीठ रखा नया था
मारा बनाया गया था। इसी ततीय रत्न पीठ से एक प्रकार की विचित्र किरणें निकल रही थीं और सारा प्रकार सामावर प्रखर किरणों एवं अपनी मांगलिक सम्पत्तियों से स्वर्ग लोक के वभवमय प्रकाश को तच्छ समझकर मसकराता
मानवता या। इसी ततीय रत्न पीठके ऊपर उत्तमगन्ध कुटी बनी हुई थी और बह एक तेजोमयी मूर्ति जान पड़ती थी। वर अनेक प्रकारके दिव्य गन्ध, महाधूप, सरभित पुष्पमाला एवं अनवरत पुष्प अस्टिसे सम्पूर्ण दिशामोंके वायु मण्डल को सन्धित करते रहने के कारण यथार्थ में ही गन्ध कुटी हो रही थी। उस गन्ध कुटी का निर्माण दिव्य प्राभूषण मोतियों को माला सवर्ण की