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चौपाई
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मूल प्राण ये चारों जान एकेन्द्रियके नासा मिले सात ये प्रान, ते इन्द्रिय को कानन जुत नव प्राण विशेख,
इन्द्रिय प्रथम प्राण अवधार, बल दुजो जानों निरवार गायु तीसरी कहिए प्रान, सांस उसास तुयं पहिचान ||२२|| समान जिला भाष दोष जुन सोय, दो इन्द्रियपट प्रान जु होय ||२३|| सुजान। चक्षु सहित आठौं गन लेव, चौ इन्द्रिय को प्राण कहेव || २४|| अरांनी वेख मन जुसहित हैं सब दश मान सैनी पंचेन्द्रिय परवान ||२५||
पंचेन्द्रीय
बोहा
पांच प्राण इन्द्रिय जनित, मन वच बल ये तीन आयु श्वास उच्छ्वास गन, ये दश सुनहु प्रवीन ॥ २६ ॥
सोरठा
कहे
लही
यह विधि जीव जीव तीन काल जग में प्रगट जब यि हे सदीव, मुख वक्त्याचित बांधमय ||२७|| अथ उपयोग भेद निरूपण
पढड़ि छन्द
चक्षु प्रचक्षु अवधि धार, केवल जुत दरशन इहि प्रकार ||२८|| मति श्रुत से दोग परोक्ष भेस, पवची मनवर्जव प्रछ देश ॥२६॥ जहं नंत द्रव्य परजाय होय, तकें सब एकहि वार सोय || ३०॥
उपजोग भेद दो विघ बखान है दरशन चारों पाठ ज्ञान मति अवधी पुन जय अज्ञान, मनपरजय केवल राष्टज्ञान श्रुत अव केवलज्ञान प्रतक्ष सर्व सो लोकालोक दिलोक ववं
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धर्म में महान प्रेम किस कर्म के कारण जागृत होता है? किसी को निर्वत एवं किसीको अति बलवान शरीर क्यों मिल जाता है ? मोक्ष का मार्ग कौनसा है ? उसका लक्षण एवं फल क्या है? मुनियों का श्रेष्ठ धर्म कौन है ? गृहस्थोंका क्या धर्म है? दोनों धर्मो अनुष्ठानका उत्तम फल क्या मिलता है ? धर्मके कारण एवं भेद कौन-कौन से हैं? और शुभ आचरण क्या है ? बारह कालोंका स्वरूप क्या है? तीनों लोक की स्थिति कैसी है? इस धरणी तल पर शलाका यानी पदवी धारक
# कर्मवाद
The theory of Karma as minutely discussed and analysed is quite peculiar to Jainism It is its unique feature.
- Prof. Dr. B. H. Kapadia VOA. vol II P. 228.
कोई अधिक मेहनत करने पर भी बड़ी मुश्किल से पेट भरता है और कोई ना कुछ किये भी आनन्द लूटता है. कोई रोगी है कोई निरोगी । कुछ इस भेद का कारण भाग्य तथा कर्मों को बताते हैं तो कुछ इस सारे भार को ईश्वर के ही सर पर थोप देते हैं कि हम बेबस है, ईश्वर की मर्जी ऐसी ही थी। दयालु ईश्वर को हमसे ऐसी क्या दुष्मनी कि उसकी भक्ति करने पर भी वह हमें दुःख दे और जो उसका नाम तक भी नहीं लेते, हिंसा तथा अन्याय करते हैं उनको सुख दे ?
जैन वर्ग ईश्वर की हस्ती से इन्कार नहीं करता, वह कहता है कि यदि उसको संसारी भंझटों में पड़कर कर्म तथा भाग्य का बनाने या उसका फल देने वाला स्वीकार कर लिया जाये तो उसके अनेक मुखों में दोष आ जाता है और यह संसारी जीव केवल भाग्य के भरोसे बैठकर प्रमादी हो जाये । कर्म भी अपने आप आत्मा से चिपटते नहीं फिरते। हम खुद अपने प्रमाद से कर्म बन्ध करते और उनका फल भोगते हैं। अपने होतं मुक्ति प्राप्त कर सकते है, परन्तु हम तो पुत्र, तथा धन के मोह में इतने अधिक हुए हैं कि क्षणभर भी यह विचार नहीं करते कि कर्म क्या हैं ? क्यों आते हैं ? और कैसे इनसे मुक्ति होकर अविनाशी सुख प्राप्त हो सकता है ? बड़ी खोज और खुद तजरवा करने के बाद जैन तीर्थंकरों ने यह सिद्ध कर दिया कि राग-द्वेष के कारण हम जिस प्रकार का संकल्प
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