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अब इनको कछ निर्णय कहौं, जथा शक्ति पागम बुध लहो। स्यात् कथंचित् कहिये सोय, आप चतुष्टयको अबलोय ॥६॥ द्रव्यक्षेत्र अरु काल जु भाव, तिनके भेद सुनो ठहराव । जो कछु वस्तु द्रव्य सो जान, द्रव्यावगाहन क्षेत्र प्रमान ।।७।। द्रव्य परजाय काल मर जाद, द्रव्य रूप भाव उन गाद । सौ यह पाप चतुष्टय धार, घट दृष्टांत अस्ति है सार ।।।। जो पर चतुक अपेक्षा जान, स्यात नास्ति ताको परमान। जैसे घट पर घटको धार, घटका नास्ति होइ तिहि वार || जो घदरूप घटहि में देखि, घट पट एक हि व्यक्त जु लेखि। पर अर अपर चतुष्टय साथ, अस्ति नास्ति तीजी श्रुत गाथ ।।१०।। अस्ति नास्ति यो बचन क्रमंत, कहयो न जान द्रव्य परजन । प्रवक्तव्य है चौथो भेद, ऐसे ही त्रय और निवेद ॥१५॥ अस्ति वक्तव्य पंचम जान, नास्ति अवक्तव्य छठम प्रमान । अस्ति नास्ति प्रवक्तव्य सातमा, स्यात सहि थानक प्रवर्तमा ॥१२॥ यह संक्षेप कहे गुण जास, अब कछ् भेद धरी यह पास । है शब्दहि प्रथमहि जानिये, नाही द्वितीय भेद ठानिये ॥१३॥ है नाही तीर्जा सुन भेव, है नहि अवक्तव्य चौथेव । है कर है है नाहीं कर है, अबक्तब्य पंचम गुणधर है।।१४।। नाही करना ही है नाही, करना ही अध्यक्त छटा हो। है कर है नाहो है, नाहो है, नाही है अवतव्या हि ।।१।।
हे देव जीव तत्वका क्या लक्षण है ? उसकी अवस्या कसो है इसके भेद एवं गुण कितने हैं ? पर्याय कौन है? और कितने पर्याय संसारिक पुरुषोंके लिये गम्य हैं ? इनके अतिरिक्त अजीव तत्व के भेद स्वरूप एवं गुण कौन-कोन है ? तथा अन्य प्रास्त्रवादि तत्वोंमें कितने गुण कारण एवं किलने दोष कारक है ? तल ना ? हा कता कौन है। तथा उसका कथन (स्वरूप) और फल क्या है ? संसारमें किस तत्वके द्वारा.क्या सिद्ध किया जाता है । और किन दुराचारोंसे पापी जोव नरकगामी होता है। किन जघन्य कर्मों के कारण जीव दु:ख दायक तिर्यवादि गतियों में न ले जाते हैं ? किन-किन श्रेष्ठ प्राचरणोंके द्वारा जीव स्वर्गगामो होता है। किस दानके फलसे शुभ परिणाम वाले जीव भोगभूमिको प्राप्त होते हैं। किन आचरणोंके द्वारा जोबको स्त्रोलिंगत्बकी प्राप्ति होती है। क्या करनेसे स्वियोंको पुरुष पर्यायको प्राप्ति होती है। क्या कारण है कि कुछ जोव नप सक्र हो जाते हैं। किन-किन पापाचरणोंके कारण जीव पगले अन्धे गगे बहरेलले लंगड़े इत्यादि विविध प्रकारके अंगहीन होकर अनेक दुःखों को भोगते रहते हैं। किन-किन कर्मों के करने से जीव रोगी एवं निरोग रूपवान एवं कुरूप
सब सच्चे हो, पाँव की अपेक्षा से वह खम्बे के समान भी है, कानों की अपेक्षा से धान के रामान भी है और कमर की अपेक्षा से तख्त के समान भी है । स्थाबाद सिद्धान्त ने ही उनके झगड़े को समाप्त किया।
अंगूठे और अंगुलिया में तबगार हो गया । हर एक अपने-अपने को ही बड़ा कहना था । अंगूठा कहता था में ही बड़ा हूँ: रुक्के-तमरसुक पर मेरी वजह से ही रुपया मिलता है, गवाही के समय भी मेरी ही पूछ है। अंगूदे के बराबर बाली जंगनी ने कहा कि हवूमत तो, मेरी है. मैं सब को रास्ता बताती है, इशारा मेरे से ही होता है मैं ही बड़ी है। तोरारी बीन वाली अंगुनी दाबी कि प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? तीनों बराबर खड़ी हो जाओ और देख लो, वि. मैं ही बड़ी है। चौथी न वहा कि वो सोम हो हू जो नसार के तमाम मंगलकारी काम करती है। विवाह में तिलक मैं ही करती है, अंगूठी मुझे पहनाई जाती है, राजतिलक में ही करती हूँ । पविधी कन्नो अंगुनी श्रीली कि तुम नारों मेरे आगे मस्तक झुकाती हो, खाना, कपड़े पहनना, लिखना यादि कोई काम करो मेरे आगे मुके बगैर काम रहीं चनना । तुम्हें कोई मारे तो मैं बचाती हैं। किसी के मुक्का मारना हा तो सबसे पहले मुझे याद किया जाता है । मैं ही बड़ी ई। पाँची का विरोध बढ़ गया तो म्यादादी ने ही उसे निबटाया कि अपनी-अपनी अपेक्षा से तुम बड़ी भी हो, छोटी भी हो बड़ी तथा छोटी दोनों भी हो।
ऋग्वेद, विष्णु पुराण महाभारत में भी स्वादाद का कथन है। गहषि पातलि ने भी स्याद्वाद की मान्यता की है । परन्तु "जैनधर्म में हिंसा तत्व जितना रहस्यमय है उसने कहीं अपि सुन्दासपतिद्वान्त हे "स्थाद्वाद के बिना कोई वैज्ञानिक तवा दार्शनिक खाज सफल नहीं हो सरुती" । "यह तो जैनधर्म की महत्वपूर्ण घोषणा का फल है। इससे सर्व सल का द्वार स्युन जाता है" "न्यायाशास्त्रों में जैनधर्म का स्थान वहत ऊंचा है" । "स्वाधार तो बड़ा ही यम्भीर है" "यह जैन धर्म का अभेद्य किला है, जिसके अन्द: वादी-प्रतिवादियों के मायानयो गोले प्रवेश नहीं कर सकते । 'सत्व के अनेक पहलुओंको एक साथ प्रकट करने की सुन्दर विधि है"। विरोधियों में भी प्रेम उत्पन्न करने का काम है"। "भिन्न-भिन्न धमों के भेद भावों को नष्ट करता है"। "विनार में गि के लिये आमीमांसा असहस्री, स्याद्वाद मजरी आदि जैन ग्रंथों के स्वाध्याय करने का कष्ट करे।
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