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प्रान बद्ध है जीव संहार, चोर जती चोरे निरहार । शील रहित है मथुन नाम, परिग्रह बहुत जोरबी दाम ।। १८६ ।। वह उद्यमको जहं विस्तार, सो प्रारम्भ तनौ अधिकार । यष्टि मुष्टि कर मारण लहै, ताइन अंग कहावै वहै ।। ११०॥ जो काह डर पावै सही, तासी कहि उपग्र विप यही। इन विन जो तप साधे धनी, कायदण्ड का त्यागी भनी ।। १६॥ दृतिय अगंयम मुनहु प्रवान, स रक्षा ते रहित बखान । सा हो तान जाग करि रंभ, सरंभ समारम्भ ग्रारम्भ ॥ १६२ ।। जीववद्धिको कारण जहाँ, सो संरम्भ कहावं तहां । जीव बद्धको आयुध यान, समारंभ भासी पहिचान ।। १६३॥ प्राणी जहां डारिये मार, सो प्रारम्भ भेद निरवार । जव मन बरते ऐसे भाव, तही असमयको ठहराव ।। १६४ ।। संजम धारी समताबंत, प्रारति रौद्र निकन्दन सन्त । श्रावक कर्म जु पहिले धरै, सो प्रायश्चित्त बल' कर हरै ।। १६५ ।। छही काल माध श्रिर ध्यान, सो सामायिक वंत बखान । वैविधि संजमको प्रतिपाल, दयावंत इन्द्रिय नहि चाल ।। १६६ ।। जहं त्रस थावर को संहार, भयो प्रमादतनों अधिकार | अथवा भयो होय व्रत भंग, कर विलाप धरै दुख ग ।। १६७ ।। ता निमित्त संजम प्रतिपाल, अपने व्रत को कर संभाल । बहुरि न जीव विराव सोय, यह छेदापस्थापन हाय ।।१९।। तीस वरषको मूनिवर राय, सेवे तीर्थकर के पाय । नवौ पूरव प्रत्याख्यान, हित प्रमाद पड़े बुधवान ॥१६६ ।। निरविद उतपात काल प्रवान, जनम जान अरु देश बखान । द्रव्य स्वभाव जोव गुण जोते, सो मुनि भेद बताव तिनं ।। २०० ॥ कर्म निर्जरा बहु विध करै, घोर वोर तपको मादरे । श्रय संख्या के अन्तर चल, दे गाऊ मारग दल मलै ॥ २०१ ।। पंच समिति को पालनहार, तोन गुप्तमें करै विहार । दिसा रहित तजै दुरबुद्ध, यह कहिये परिहार विशुद्ध ।। २०२ ।। सूक्ष्म थुल जीव प्रतिपाल, तप प्रखण्ड धारी गुनमाल । दरशन ज्ञान समीर चलाय, प्रजुलित करंरा अग्नि शुभ जाय ।। २०३॥ कर्म रूप सब ईधन जितौ, दयौ जराय मुनीश्वर सितहो । ध्यान अठारहि करमें ल्याय, अरुकषाय को दियो ढहाय ।। २०४।। सूक्षम रही मोहको जोर, ना क्षय कारन उद्यम पोर । जहं ता कर छोज मुनि देह, मूक्षम सांपराय गुण एह ॥२०५ ।। तपकर नारी सकल कपाक, अशमात्र कोऊ न दिखाय । बीलराग चारित रस पिये, प्रातम अनुभव बरते हिये ।। २०६॥ जथास्यात लाही को नाम, सानों सजम ये गुणधाम । जीव धरं ये सातों रूप, नप संजमधारी जु अनुप ।। २०७ ।।
दर्शनमार्गणा
चक्ष प्रचक्षु अवधि जुत तीन. केवल दर्शन चौथीलीन । ये हो चारों दर्शन जान, दरौ वस्तु लोक प्रस्थान ।। २०८ ।।
लेण्यामार्गणा
प्रथम कृष्ण घर नरक लहंत, दूज नोल हि थावर जंत । तीज कापोत हि तिरंजंच, चौथे पीत मनुष पद संच || २०६॥ पंचम पद्म स्वर्गमति लहैं, षष्ठम शुक्ल भाव शिव गहै । ये छह लेश्या भेद विचार, सुनहु भव्य मिथ्या निरवार ।। २१० ॥ भारत रौद्र न त्याग कदा, धर्म विजित कोधो सदा । दया रहित परपंची होय, लेश्या कृष्ण जास अग जोय ॥ २११ ।। मंदबुद्धि परमादी गुनौ, निडर वचन बोले बहु घनो । है परर्पयो कामी घोर, लेश्या नील तास को और ।। २१२ ।।
अापको निष्फल एवं सिद्धांके समान समझ कर योगियों की तरह ध्यान मग्न रहता है अर्थात् चितवन किया करता है और प्रात्म-द्रव्य एवं परदेह इत्यादि वस्त्रों में वास्तविक भेदोंको समझता है उस महाज्ञानीको अन्तरात्मा कहते हैं। थोड़े शब्दों में ऐसे कहा जा सकता है कि जिसका पवित्र एक्येष्ठ मन उत्तम अधर्मके विचार कर लेने में कसौटी के समान होकर निर्णय कर डालता है वही अन्तरात्मा या परम ज्ञानी है। ऐसा जानकर आत्माकी तरफ से सम्पूर्ण जड़ताको हटा ले यौर परमात्म पद पाने को इच्छासे उसके पहले अन्तरात्म पदको प्राप्त करे।
परमात्मा सकल विकल के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। जो दिव्य शरीर में अवस्थित रहता है वह सकल परमात्मा
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