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उक्त इकतीसा
मिथ्यामति गांठ भेद् जागी निर्मल सुजोति | जोगसी अतीत सो तो निश्चय प्रमानिये ॥
है दुइ दशा सौ कहावे, जोग मुद्रा धरै चेतना चिन्ह पहिचान प्रापा पर वेदे करें भेदाभेदको विचार विस्तार रूप
मति श्रुत ज्ञान भेद व्यवहार मानिये ॥ अलग ताते सामान्य वखानिये ||
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पौरुष
से जे
उपादेव सो विशेष जानिये ॥
संतीमागंणा
चौपाई
नो मनकर सहित बखान, द्वितीय असे मना जान इहि विधि घरं मातमा रूप करें जगत में नृत्य अनूप ॥ २३५॥
श्राहारमार्गणा
बाहारक जह भोजन चार ग्रनहारक जहं प्रकृत अहार जो नाहि तील भ्रमण जगत के मांहि ॥ २३६॥
गुणस्थान निरुपण
प्रथम मियात ससादन जोम मिश्र बहुर भद्र पुनि हाय । देशवृत्त पंचम गुणवान, पाठ प्रमत्तनाम तिहि जान ||२३७|| श्रप्रमत्त सातम जानिये, अठम अपूर्वकरण मानिये । श्रनिवृत्तिकरण नवम्पुनि सोय, सूनसराय जोय ॥२३८ ।। गरम है उपशांत कषाय, क्षण मोह द्वादश गुण थाय । तेरम कह्यो संजोग केवली पुनि प्रजोगीदमों वली || २३६॥
दोहा
अब वरन मिध्यात भेद पंच परकार ।। २४०|| संशय पर अज्ञान जुन एक पांच मिध्यात ।। २४१ ।। चौपाई
कर एकान्त पक्ष मन सोय, नय अनेकको भेद न कोय । मृपावंत जे दक्ष कहाय, प्रथम मिध्यात हि यहा भाव ॥८।।
श्री जिन आगम वाणी सही, गणधर देव प्रगट जग कही जं नर मन विकलपको ग, तत्व अरथ नहिं श्रद्धा लहै निज सुख दुख कारण जे जोव, परको पीड़ा करत
। तिहि उथापिनूतन रचि कहै, ते विपरीत जग दुख लहैं ।। २८३ ।। । मनमें संसय राखें धन, ते संशय मिथ्याती मनौ ।। २४४ अपने स्वास्थ औरहि हाँ, ते अज्ञान मिथ्याती मनें ॥ २४५॥ सादि मिध्यादृष्टि
तो
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वरने सच गुण पानके नाम चतुर्दश सार एकान्त हि विपरीत पुन' तोजो विनय विख्यात
दोहा
जो मिध्यातम उपशमं जिन मारग रत होय । फिर श्राबै मिथ्यात में, सादि मिथ्याती जोय || २४६ ||
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केवली स्वरूप हैं, सर्वबन्ध हैं, अलोकिक प्रदारिक शरीर में शोभायमान हैं और सम्पूर्ण लोकातिशय सम्पत्तियांस युक्त होकर संसार में सबको स्वर्ग एवं मोक्षरूपी उत्तम फल पा जानेकी इच्छा अनवरत धर्मोपदेश रूपी अमृतकी वर्षा किया करते हैं उन्हींको सकल परमात्मा कहते हैं वे ही वन स्वामी हैं और जिनेन्द्र पद के अभिलाषी हैं उन्हें उचित हैं कि किसी धन्यकी शरण में न जाकर इन्हीं सकल परमात्मा प्रभुकी सेवा करें। ऐसा ही नियम है । पूर्वके लोग ऐसा ही करते बाये हैं । जो सम्पूर्ण कर्मों से
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